अच्युत-चरण“-तरंगिणी – रहीम दोहावली
अच्युत-चरण“-तरंगिणी, शिव-सिर-मालति-माल।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव-भाल।। 21।
अर्थ–कवि रहीम कहते हैं कि भगवान विष्णु के चरणों से तरंगित, भगवान शिव के सिर पर मालती लता के समान, मुझे गंगा न बनाओ। मुझे भगवान शंकर के मस्तक पर शोभायमान होने वाला चंद्रमा बनाओ। भाव–भगवान विष्णु के चरणों से निकलकर भगवान शिव के सिर पर उतरने वाली गंगा के रूप में कवि अपने आपको नहीं बनाना चाहता। गंगा तो निरंतर स्वर्ग से नीचे गिरती ही चली जाती है। उस गंगा की धारा के रूप में भक्त अपने आपको भगवान से दूर करना नहीं चाहता, नीचे गिरना नहीं चाहता।
भक्त अपने भगवान के पास ही रहना चाहता है। जिस प्रकार चंद्रमा भगवान के मस्तक पर शोभा पाता है उसी प्रकार एक भक्त, भगवान के निकट रहते हुए शोभा प्राप्त करना चाहता है। भक्त और दइष्ट की यह समीपता ही भक्त को भगवान की आभा से युक्त कर पाती है।