कबीर दोहावली ४ सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई । तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥ हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार । मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥ कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि । पाका कलस कुंभार का, बहुरि न …