Home Hindu Fastivals शनिदेव पर तेल चढ़ाने की परंपरा क्‍यों? – हिन्दुओ के व्रत और त्योहार

शनिदेव पर तेल चढ़ाने की परंपरा क्‍यों? – हिन्दुओ के व्रत और त्योहार

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शनिदेव पर तेल चढ़ाने की परंपरा क्‍यों?

शनिदेव दक्ष प्रजापति की पुत्री संज्ञादेवी और सूर्यदेव के पुत्र हैं। यह नवग्रहों में सबसे अधिक भयभीत करने वाला ग्रह है। इसका प्रभाव एक राशि पर ढाई वर्ष ओर साढे साती के रूप में लंबी अवधि तक भोगना पड़ता हे। शनिदेव की गति अन्य सभी ग्रहों से मंद होने का कारण इनका लंगडाकर चलना हे। वे लंगड़ाकर क्‍यों चलते हें, इसके संबंध में सूर्यतंत्र में एक कथा है-एक बार सूर्यदेव का तेज सहन न कर पाने की वजह से संज्ञादेवी ने अपने शरीर से अपने जैसी ही एक प्रतिमूर्ति तैयार की और उसका नाम स्वर्णा रखा। उसे आज्ञा दी कि तुम मेरी अनुपस्थिति में मरी सारी संतानों की देखरेख करते हुए सूर्यदेव की सेवा करो ओर पत्नी सुख भोगो। आदेश देकर वह अपने पिता के घर चली गई। स्वर्णा ने भी अपने आपको इस तरह ढाला कि के भी यह रहस्य न जान सकें। इस बीच सूर्यदेव से स्वर्णा को पांच पुत्र ओर दो पुत्रियां हुई। स्वर्णा अपने बच्चों पर अधिक ओर संज्ञा की संतानों पर कम ध्यान देने लगी। एक दिन संज्ञा के पुत्र शनि को तेज भूख लगी, तो उसने स्वर्णा से भोजन मांगा। तब स्वर्णा ने कहा कि अभी उठो, पहले मैं भगवान्‌ का भोग लगा लूं और तुम्हारे छोटे भाई बहनों को खिला दूं, फिर तुम्हें भोजन दूंगी। यह सुनकर शनि को क्रोध आ गया और उन्होंने माता को मारने के लिए अपना पैर उठाया, तो स्वर्णा ने शनि को शाप दिया कि तेरा पांव अभी टूट जाए। माता का शाप सुनकर शनिदेव डरकर अपने पिता के पास गए ओर सारा किस्सा कह सुनाया। सूर्यदेव तुरंत समझ गए कि कोई भी माता अपने पुत्र को इस तरह का शाप नहीं दे सकती। इसलिए उनके साथ उनकी पत्नी नहीं, कोई अन्य है।
सूर्यदेव ने क्रोध में आकर पूछा कि “बताओ तुम कोन हो?’ सूर्य का त् देखकर स्वर्णा घबरा गई ओर सारी सच्चाई उन्हें बता दी। तब सूर्यदेव ने शनि को समझाया कि स्वर्णा तुम्हारी माता नहीं है, लेकिन मां समान है। इसलिए उनका दिया शाप व्यर्थ तो नहीं होगा, परंतु यह इतना कठोर नहीं हागा कि टांग पूरी तरह से अलग हो जाए। हां, तुम आजीवन एक पांव से लंगड़ाकर चलते रहोगे। तभी से शनिदेव लंगडे हैं।
शनिदेव पर तेल क्‍यों चढ़ाया जाता हे, इस संबंध में आनंदरामायण में एक कथा का उल्लेख मिलता है। जब भगवान्‌ राम की सेना ने सागरसेतु बांध लिया, तब राक्षस इसे हानि न पहुंचा सकें। उसके लिए पवनसुत हनुमान को उसकी देखभाल की पूरी जिम्मेदारी सोंपी गई। जब हनुमान जी शाम के समय अपने इष्टदेव राम के ध्यान में मग्न थे, तभी सूर्यपुत्र शनि ने अपना काला कुरूप चेहरा बनाकर क्रोधपूर्वक कहा-‘हे वानर! मैं देवताओं में शक्तिशाली शनि हूं। सुना हे, तुम बहुत बलशाली हो। आंखें खोलो ओर मुझसे युद्ध करा, मैं तुमसे युद्ध करना चाहता हूं।’ इस पर हनुमान ने विनम्रतापूर्वक कहा-‘इस समय में अपने प्रभु का ध्यान कर रहा हूं। आप मेरी पूजा में विघ्न मत डालिए। आप मेरे आदरणीय हैं, कृपा करके यहां से चले जाइए।’ जब शनि लड़ने पर ही उतर आए तो हनुमान ने शनि को अपनी पूंछ में लपेटना शुरू कर दिया। फिर उसे कसना प्रारंभ कर दिया। जोर लगाने पर भी शनि उस बंधन से मुक्त न होकर पीड़ा से व्याकुल होने लगे। हनुमान जी ने फिर सेतु की परिक्रमा शुरू कर शनि के घमंड को तोड़ने के लिए पत्थरों पर पूंछ को झटका दे दे कर पटकना शुरू कर दिया। इससे शनि का शरीर लहुलुहान हो गया, जिससे उनकी पीड़ा बढ़ती गई। तब शनिदेव ने हनुमान जी से प्रार्थना की कि मुझे बंधनमुक्त कर दीजिए। मैं अपने अपराध की सजा पा चुका हूं। फिर मुझसे ऐसी गलती नहीं होगी।
इस पर हनुमानजी बोले-मैं तुम्हें तभी छोडूंगा, जब तुम मुझे वचन दोगे कि श्रीराम के भक्तों को कभी परेशान नहीं करोगे। यदि तुमने ऐसा किया, तो मैं तुम्हें कठोर दंड दूंगा।’ शनि ने गिड़गिड़ाकर कहा-‘मैं बचन देता हूं कि कभी भूलकर भी आपके और श्रीराम के भक्तों की राशि पर नहीं आऊंगा। आप मुझे छोड दें।’ तब हनुमान्‌ ने शनिदेव को छोड़ दिया। फिर हनुमान जी से शनिदेव ने अपने घावों की पीड़ा मिटाने के लिए तेल मांगा। हनुमान्‌ ने जो तेल दिया, उसे घाव पर लगाते ही शनिदेव की पीड़ा मिट गई। उसी दिन से शनिदेव को तेल चढ़ता है, जिससे उनकी पीड़ा शांत हो जाती है और वे प्रसन्‍न हो जाते हैं।
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