सबसे बड़ा दान क्या है
यज्ञ में युधिष्ठिर से प्रश्न किया गया: ‘ श्रेष्ठ दान क्या है’? इस पर युधिष्टिर ने उत्तर दिया, ‘जो सत्पात्र को दिया जाए। जो प्राप्त दान को श्रेष्ठ कार्य में लगा सके, उसी सत्पात्र को दिया दान श्रेष्ठ होता है। वही पुण्यफल देने में समर्थ है।’ कर्ण ने अपने कवच का, शिवि ने अपने मांस का, जीमूतवाहन ने अपने जीवन का तथा दधीचि ने अपने अस्थियों का दान कर दिया था। दानवीर कर्ण की दानशीलता अत्याधिक जगविख्यात है।
दान देना मनुष्यजाति का सबसे बड़ा तथा पुनीत ऊर्तत्य है। इसे कर्त्तव्य समझकर दिया जाना चाहिए और उसके बदले में कुछ पाने की इच्छा नहीं रहनी चाहिए। अन्नदान महादान है, विद्यादान ओर बड़ा है। अन्न से श्रणिक तृप्ति होती है, किंतु विद्या से जीवनपर्यत तृप्ति होती हे।
ऋग्वेद में कहा गया है-संसार का सर्वश्रेष्ठ दान ज्ञानदान है, क्योंकि चोर इसे चुरा नहीं सकते, न ही कोई इसे नष्ट कर सकता है। यह निरंतर बढ़ता रहता है। और लोगों को स्थायी सुख देता है।

धर्मशास्त्रों में हर तिथि पर्व पर स्नानादि के पश्चात् दान का विशेष महत्व बताया गया है। सुपात्र को सात्विक भाव से श्रद्धा के साथ किए गए दान का फल अकसर जन्मांतर में मिलता है।
भविष्यपुराण 151/18 में लिखा है कि दानों में तीन दान अत्यन्त श्रेष्ठ हैं-गोदान, पृथ्वीदान और विद्यादान। यह दुहने, जोतने और जानने से सात कुल तक पवित्र कर देते हें।
मनुस्मृति के अध्याय 4 में श्लोक 229 से 234 के मध्य दान के संबंध में महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं
भूखे को अन्नदान करने वाला सुखलाभ पाता है, तिलदान करने वाला अभिलषित संतान और दीप दान करने वाला उत्तम नेत्र प्राप्त करता हे। भूमिदान देने वाला भूमि, स्वर्णदान देने वाला दीर्घ आयु, चांदी दान करने वाला सुंदर रूप पाता है। सभी दानों में वेद का दान सबसे बढ़कर है। जो दाता आदर से प्रतिग्राही को दान देता हे और प्रतिग्राही आदर से उस दान को ग्रहण करता है, वे दोनों स्वर्ग को जाते हैं। इससे उलटा अपमान से दान देने वाला और दान लेने वाला दोनों नरक में जाते हैं। जिस-जिस भाव से जिस फल की इच्छा कर जो दान करता है, जन्मांतर में सम्मानित होकर वह उन उन वस्तुओं को उसी भाव से पाता है
अन्यायपूर्वक कमाए हुए धन के दान के संबंध में स्कंदपुराण में लिया है
न्यायोपार्जित वित्तस्थ दशमाशेन धीमत:।
कर्तव्यों विनियोगएच ईश्वरप्रीत्यर्थमेव च॥
अर्थात् अन्यायपूर्वक अर्जित धन का दान करने से कोई पुण्य नहीं होता। दानरूप कर्तव्य का पालन करते हुए भगवत्प्रीति को बनाए रखना भी आवश्यक हे।