Story – The Corrupting Influence of Unethical Gains
पापी का अन्न खाने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है
अब पाप का खाय के, बुद्धि हुई मलीन।
जिन गौरव सब मिट गया, हो गए तेरह तीन॥
Story – The Corrupting Influence of Unethical Gains” – महाभारत के युद्ध में जिस समय भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर घायल होकर पड़े हुए थे, उस समय वे पाण्डवों को धर्म का उपदेश सुनाने लगे, तो द्रोपदी भी वहाँ पर बैठी हुई उनका उपदेश सुनने लगी। भीष्म पितामह के पवित्र धर्म उपदेशों की छाप पाण्डवों के हृदयों पर खूब अंकित हो रही थी। उसी समय धर्म उपदेश सुनते-सुनते द्रोपदी को हँसी आ गई। द्रोपदी को हँसता देखकर भीष्म पितामह ने पुछा-है बेटी! तुम इस समय बिना कारण क्यों हँस रही हो? जबकि मैं इस समय तुम्हारे पतियों को धर्म का उपदेश दे रहा हूँ। तुम इतने गंभीर उपदेश को सुनकर क्यों हँसी ?
द्रोपदी ने उत्तर दिया- हे पितामह! जिस समय आपके सामने भरी सभा में दुःशासन मेरे केशों को पकड़कर लाया था और दुर्योधन ने सभा के बीच में मुझे खड़ा करके नंगा करने लगा था, उस समय आपका यह धर्म उपदेश कहाँ चला गया था? आपने दुर्योधन को यही धर्म का उपदेश सुनाकर अधर्म का कार्य करने से क्यों नहीं रोका?
भीष्म पितामह द्रोपदी की बात सुनकर रो पड़े और बोले- बेटी तुम्हारा कथन सही है। परन्तु उस समय मैंने पापी दुर्योधन का अन्न खाया था और उस अन्न को खाने से मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। तुमने एक कहावत सुनी होगी जैसा अन्न वैसा मन बुद्धि भ्रष्ट होने के कारण मुझे उस समय किसी प्रकार की भी धर्म चर्चा करने की बात नहीं सूझी। बेटी पापी के अन्न को ग्रहण करने से बुद्धि मलिन हो जाती है और मलिन बुद्धि में धर्म का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं रहता है।
हे द्रोपदी! पाण्डवों के नुकीले बाणों से मेरे शरीर से पापी दुर्योधन के अन्न से बना रक्त बाहर निकल चुका है। इस कारण से अब मेरा अन्तःकरण, मन, बुद्धि सब पवित्र हो गए हैं। इसलिए अब मुझे धर्म सम्बन्धी उपदेश देने का अधिकार हो गया है। मेरे शरीर में अब पापी दुर्योधन के अन्न का एक तिनका भी शेष नहीं है। द्रोपदी यह सुनकर चुप हो गई।
मित्रों! इस उपरोक्त आख्यान से हमें यही शिक्षा मिलती है कि हम पापी लोगों के अन्न से बचते रहें और जीवन पर्यन्त धर्मात्माओं के धर्म उपदेशों का लाभ उठाते रहें।