पारमार्थिक प्रेम बेचने की वस्तु नहीं
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एक गृहस्थ त्यागी महात्मा थे। एक बार एक सज्जन दो हजार सोने की मोहरें लेकर उनके पास आये और कहने लगे – मेरे पिताजी आपके मित्र थे उन्होंने धर्म पूर्वक अर्थोंपार्जन किया था । मैं उसी मे से कुछ मोहरों की थैली लेकर आपकी सेवा में आया हूँ इन्हें स्वीकार कर लीजिये । इतना कहकर वे थैली छोड़कर चले गये ।
महात्मा उस समय मौन थे कुछ बोले नहीं । पीछे से महात्मा ने अपने पुत्र को बुलाकर कहा-बेटा ! मोहरों की थैली अमुक सज्जन को वापस दे आओ। उनसे कहना-तुम्हारे पिता के साथ मेरा पारमार्थिक-ईंश्वर को लेकर प्रेम का सम्बन्ध था सांसारिक विषय को लेकर नहीं ।
पुत्र ने कहा – पिताजी ! आपका हदय क्या पत्थर का बना है आप जानते हैं अपना कुटुम्ब बडा है और घर में कोई धन गड़ा नहीं है। बिना माँगे इस भले आदमी ने मोहरें दी हैं तो इन्हें अपने कुटुप्तियों पर दया करके ही आपको स्वीकार कर लेना चाहिये। महात्मा बोले-बेटा !
क्या तेरी ऐसी इच्छा है कि मेरे कुटुम्ब के लोग धन लेकर मौज कों और मैं अपने ईश्वरीय प्रेम को बेचकर बदले में सोने की मोहरें खरीदकर दयालु ईश्वर का अपराध करूँ ?