मेरे राज्य में न चोर हैं न कृपण हैं, न शराबी हैं न व्यभिचारी हैं |
एक बार उपमन्यु के पुत्र प्राचीनशाल, पुलुष-पुत्र सत्ययज्ञ, भल्लवि-पौत्र इन्द्रध्रुम, शर्कराक्षका पुत्र जन और अश्वतराश्व-पुत्र बुडिल-ये महागृहस्थ और श्रोत्रिय एकत्र होकर आपस में आत्मा और ब्रद्म के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करने लगे। पर जब वे किसी ठीक निर्णय पर न पहुँचे, तब अरुण के पुत्र उद्दयालक के पास जाकर इस रहस्य को समझने का निश्चय किया।
उद्यलक ने जब उन्हें दूर से ही आते देखा तभी उनका अभिप्राय समझ लिया और विचारा कि “इसका ठीक-ठीक निर्णय तो मैं कर नहीं सकता, अतएव इन्हें केकय के पुत्र राजा अश्वपति के पास भेजना चाहिये।! उसने उनके आने पर कहा कि ‘भगवन्! इस वैश्वानर आत्मा को अश्वपति ही अच्छी प्रकार जानते हैं; चलिये, हम लोग उन्हीं के पास चलें।’ सब तैयार हो गये और अश्वपति के यहाँ पधारे।
राजा ने सभी ऋषियों के सत्कार का अलग-अलग प्रबन्ध किया। दूसरे दिन प्रातःकाल उसने उनके सामने बहुत बड़ी अर्थ राशि सेवा में रखी, परंतु उन्होंने उसका स्पर्श तक नहीं किया। राजा ने सोचा, ‘मालूम होता है ये मुझे अधर्मी अथवा दुराचारी समझ रहे हैं; इसीलिये इस धन को दूषित समझकर नहीं ग्रहण करते। अतएवं उसने कहा- न तो मेरे राज्य में कोई चोर है, न कोई कृपण, न मद्यपायी (शराबी)। हमारे यहाँ सभी ब्राह्मण अग्निहोत्री तथा विद्वान् हैं। कोई व्यभिचारी पुरुष भी मेरे देश में नहीं है; और जब पुरुष ही व्यभिचारी नहीं हैं, तब स्त्री तो व्यभिचारिणी होगी ही कहाँ से ?’ अतएव मेरे धन में कोई दोष नहीं है। ऋषियों ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया।
राजा ने सोचा, “थोड़ा धन देखकर ये स्वीकार नहीं करते होंगे! अतएव उसने पुनः कहा – भगवन्! में एक यज्ञ का आरम्भ कर रहा हूँ, उसमें प्रत्येक ऋषित्व को जितना धन दूँगा, उतना ही आपमें से प्रत्येक को दूँगा।
राजा की बात सुनकर ऋषियों ने कहा-राजन्! मनुष्य जिस प्रयोजन से जहाँ जाता है, उसका वही प्रयोजन पूरा करना चाहिये। हम लोग आपके पास धन के लिये नहीं, अपितु वैश्वानर-आत्मा के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने के लिये आये हैं।’ राजाने कहा – इसका उत्तर मैं प्रातःकाल दूँगा।
दूसरे दिन पूर्वाह्म में वे हाथ में समिधा लेकर राजा के पास गये और राजा ने उन्हें बतलाया कि यह समस्त विश्व भगवत्स्वरूप है तथा आत्मा एवं परब्रह्म में स्वरूपत: कोई भेद नहीं है।