सफलता एकादशी व्रत की कथा
प्राचीन समय में महिष्मत नामक एक राजा चम्पावती नाम की प्रसिद्ध नगरी में राज करता था। उसका बड़ा बेटा लुम्पक बड़ा दुराचारी था। मांस, मदिरा, परस्त्री मगन, वेश्याओं का संग इत्यादि काुर्कमों से परिपूर्ण था। पिता ने उसे अपने राज्य से निकाल दिया। वन में एक पीपल का वृक्ष था जो भगवान को भी प्रिय था। सब देवताओं की क्रीडा स्थली भी वहीं थी। ऐसे पतित पावन वृक्ष के सहारे लुम्पक भी रहने लगा। परन्तु फिर भी उसकी चाल टेढी ही रही। पिता के राज्य में चोरी करने चला जाता तो पुलिस पकड़कर छोड देती थी। एक दिन पौष मास के कृष्ण पक्ष की दशमी की रात्रि को उसने लूट मार एवं अत्याचार किया तो पुलिस ने उसके वस्त्र उतारकर वन को भेज दिया। वह बेचारा पीपल की शरण में आ गया। इधर हेमगिरि पर्वत की पवन भी आ पहुंची। लुम्पक पापी के सब अंगों में गठिया रोग ने प्रवेश किया, हाथ-पांव अकड़ गए।
अतः सूर्योदय होने के बाद कुछ दर्द कम हुआ, पेट का गम लगा, जीवों के मारने में आज असमर्थ था। वृक्ष पर चढ़ने की शक्ति भी नहीं थी। नीचे गिरे हुए फल बीन लाया ओर पीपल की जड़ में रखकर कहने लगा-हे प्रभो! बन फलों का आप ही भोग लगाइए। मैं अब भूख हड॒ताल करके शरीर को छोड़ दूंगा। मेरे कष्ट भरे जीवन से मौत भली। ऐसा कहकर प्रभु के ध्यान में मग्न हो गया। रातभर नींद न आई। भजन, कीर्तन, प्रार्थना करता रहा परन्तु प्रभु ने उन फलों का भोग न लगाया। प्रात: काल हुश्ना तो एक दिव्य अश्व आकाश से उतरकर उसके सामने प्रकट हुआ और आकाशवाणी द्वारा नारायण कहने लगे तुमने अनजाने में सफला एकादशी का ब्रत किया।
उसके प्रभाव से तेरे समस्त पाप नष्ट हो गए। अग्नि का जान के या अनजाने हाथ लगाने से हाथ जल जाते हैं। वैसे ही एकादशी भूलकर रखने से भी अपना प्रसाद दिखाती है। अब तुम इस घोड़े पर सवार होकर पिता के पास जाओ, राज मिल जाएगा। सफला एकादशी सर्व सफल करने वाली है, प्रभु आज्ञा से लुम्पक पिता के पास आया। पिता उसे राजगद्दी पर बिठाकर आप तप करने बन को चला गया। लुम्पक के राज्य में प्रजा एकादशी त्रत विधि सहित किया करती थी। सफला एकादशी की कथा सुनने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।