तत्त्व ज्ञान के श्रवण का अधिकारी
महर्षि याज्ञवल्क्य नियमित रूप से प्रतिदिन उपनिषदों का उपदेश करते थे। आश्रम के दूसरे विरक्त शिष्य तथा मुनिगण तो श्रोता थे ही, महाराज जनक भी प्रतिदिन वह उपदेश सुनने आते थे। महर्षि तब तक प्रवचन प्रारम्भ नहीं करते थे, जब तक महाराज जनक न आ जायें इससे श्रोताओं के मन में अनेक प्रकार के संदेह उठते थे। वे संकोच के मारे कुछ कहते तो नहीं थे, किंतु मन में सोचते रहते थे -महर्षि शरीर की तथा संसार को अनित्यता का प्रतिपादन करते हैं, मान अपमान को हेव बतलाते हैं, किंतु विरक्तों, ब्राह्मणों तथा मुनियों के रहते भी राजा के आये बिना उपदेश प्रारम्भ नहीं करते।