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सब चमार हैं

मिथिला-नरेश महाराज जनककी सभामें शास्त्रोंके भर्मज्ञे सुप्रसिद्ध विद्वानोंका समुदाय एकत्र था। अनेक बेदज्ञ ब्राह्मण थे। बहुत-से दार्शनिक मुनिगण थे। उस राजसभामें ऋषिकुमार अष्टावक्रजीने प्रवेश किया। हाथ, पैर तथा पूरा शरीर टेढ़ा! पैर रखते कहीं हैं तो पड़ता कहीं है और मुखकी आकृति तो और भी कुरूप है। उनकी इस बेढंगी सूरतको देखकर सभाके प्राय: सभी लोग हँस पड़े। अष्टावक्रजी असंतुष्ट नहीं हुए। वे जहाँ थे, वहीं खड़े हो गये और स्वयं भी हँसने लगे। 

महाराज जनक अपने आसनसे उठे और आगे आये। उन्होंने हाथ जोड़कर पूछा–‘ भगवन्‌! आप हँस क्यों रहे हैं?! 
अष्टावक्रने पूछा–‘ये लोग क्‍यों हँस रहे हैं?’ 
“हमलोग तो तुम्हारी यह अटपटी आकृति देखकर हँस रहे हैं।’ एक ब्राह्मणने उत्तर दिया। 
अष्टावक्रजी बोले–‘राजन्‌! मैं चला था यह सुनकर कि जनकके यहाँ विद्वान्‌ एकत्र हुए हैं; किंतु अब यह देखकर हँस रहा हूँ कि विद्वानोंकी परिषदके बदले चमारोंकी सभामें आ पहुँचा हूँ। यहाँ तो सत्र चमार हैं।!’ 
“भगवन्‌! इन विद्वानोंको आप चमार कहते हैं ?’ महाराज जनकने शड्धित स्वरमें पूछा। 
अष्टावक्र उसी अल्हड़पनसे बोले-‘जो चमड़े और हड्डियोंको देखे-पहिचाने, वह चमार।’ 
“समस्त विद्वानोंक मस्तक झुक गये उन ऋषिकुमारके सम्मुख । “सु? सिं० 
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