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श्री लक्ष्मीस्तोत्र – हिन्दुओ के व्रत और त्योहार

श्री लक्ष्मीस्तोत्र

इन्द्र बोले-सम्पूर्ण लोगों की जननी, विकसित कमल के सदृश नेत्रों वाली, भगवान विष्णु के वक्ष स्थल में विराजमान कमलोभ्दवा श्रीलक्ष्मी देवी को मैं नमस्कार करता हूं कमल ही जिनका निवास स्थान है, कमल ही जिनके कर कमलों में रुशोभित है, तथा कमल दल के समान ही जिनके नेत्र हें उन कमलमुखी कमलनाथ प्रिया श्रीकमला देवी की मैं वन्दना करता हूं। हे देवी! तुम सिद्धि हो, स्वाहा हो, सुधा हो और त्रिलोकी को पवित्र करने वाली हो तथा तुम ही संध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो।
हे शोभने। यज्ञ विद्या (कर्म काण्ड), महाविद्या (उपासना) और गृह्मविद्या (इन्द्रजाल) तुम्हीं हो तथा हे देवि! तुम्हीं मुक्ति फल दायिनी आत्मविद्या हो। हे देवि! आन्वीक्षिकी (तर्क विद्या), वेदत्रयी, वार्ता (शिल्पवाणिज्यादि) और दण्डनीति (राजनीति) भी तुम्हीं हो। तुम्हीं ने अपने शान्त ओर उग्र रूपों से यह समस्त संसार व्याप्त किया हुआ है। है देवि! तुम्हारे बिना और ऐसी कौन स्त्री है जो देवदेव भगवान गदाधर के योगिजन चिन्तित सर्वयज्ञमय शरीर का आश्रय पा सके। हे देवि! तुम्हारे छोड देने पर सम्पु र्ण त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी। अब तुम्हीने उसे पुन जीवन दान दिया है। हे महाभागे! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा सुहद्‌ ये सब सदा आप ही के दृष्टिपात से मनुष्यों को मिलते हैं। हे देवि! तुम्हारी कपा दृष्टि के पात्र पुरुषों के लिए शारीरिक आरोग्य, ऐश्वर्य, शरत्रु-पक्ष का नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं है। तुम सम्पूर्ण लोकों की माता हो और देवदेव भगवान हरि पिता हैं। हे मात:। तुमसे और श्रीविष्णु भगवान से यह सकल चराचर जगत व्याप्त हे। हे सर्वपावनि हमारे कोश (खजाना), गोष्ठ (पशुपाला), गृह, भोगसामग्री, शरीर ओर स्त्री आदि को आप कभी न त्यागें अर्थात्‌ इनमें भरपूर रहें। अयि विष्णुवक्ष: स्थल-निवासिनि! हमारे पुत्र, सृहद, पशु और भूषण आदि को आप कभी न छोड़ों। हे अमले! जिन मनुष्यों को तुम छोड़ देती हो उन्हें सत्त (मानसिक बल), सत्य, शौच शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते हैं। और तुम्हारी कृपा दृष्टि होने पर तो गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण ओर कुलीनता तथा ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न हो जाते हैं। हे देवि! जिस पर तुम्हारी कृपादृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही शूरवीर ओर पराक्रमी है। हे विष्णुप्रिये! हे जगज्जन्ननि! तुम जिससे विमुख हो उसके तो शील आदि सभी गुण तुरन्त अवगुणरूप हो जाते हैं। हे देवि! तुम्हारे गुणों का वर्णन करने में तो श्री ब्रह्म जी की रचना भी समर्थ नहीं है। (फिर में क्या कर सकता हूं) अत: हे कमलनयने। अब मुझ पर प्रसन्‍न हो और मुझे कभी न छोड़ो।
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