बाबा! शेर बनकर गीदड़ क्यों बनते हो ?
प्रसिद्ध संत श्रीतपसी बाबा जी महाराज बड़े घोर तपस्वी संत थे। जो भी रूखा-सूखा मिल जाता, उसी से पेट भर लेते और निरन्तर भजन-ध्यान में लगे रहते। सब कुछ त्याग होने पर भी आपने देखा कि मुझसे और सब तो छूट गया, पर दूध पीने की इच्छा बनी रहती है,दूध पिये बिना चैन नहीं पड़ती और इससे भजन में बड़ा विघ्न पड़ता है।’ अत: आपने एक दिन अपने मन को कड़ी लताड़ देते हुए कहा-‘मैं आज प्रतिज्ञा करता हूँ,जीवनभर कभी दूध नहीं पीऊँगा।’
इसी के साथ अन्न-फल-फूल आदि खाना भी छोड़ दिया और सारे शरीर के वस्त्र भी उतारकर फेंक दिये। वस्त्रों की जगह आप मुँज की लंगोटी बाँधा करते थे और शरीर पर भस्म लगाया करते थे। भोजन में वृक्षों के पत्ते धूनी में उबालकर उनका गोला बनाकर खा लिया करते थे। इस प्रकार के कड़े नियमों का लगातार पैंतालीस वर्षों तक पालन होता रहा। हजारों दर्शनार्थी आते रहते, पर आप न तो किसी से कुछ लेते और न किसी से बातें करते। हर समय तपस्या में संलग्न रहते।
पैंतालीस वर्ष पश्चात् एक दिन आपका मन दूध की ओर चला और दर्शन करने आयी हुई एक माई से आपने कहा-‘आज रात्रि को हम दूध पीयेंगे।’ वह माई धनी घराने की थी और बड़ी ही बद्धिमती भी थी। उसे यह पता लग चुका था कि महाराज की जीवन भर दूध न पीने की प्रतिज्ञा की हुई है। माई ने कहा कि ‘अच्छा महाराज! रात्रि को दूध आ जायगा।’ उसने पंद्रह-बीस घड़े भरकर दूध मँगवाया और उनमें मीठा मिलाकर बाबा की कुटिया के बाहर लाकर रखवा दिया। जब बाबा कुटिया में से तपस्या करके बाहर निकले तब माई ने हाथ जोड़कर कहा-‘महाराज ! मैं लोभी नहीं हूँ। आपके लिये दूध के घड़े पर घड़े भरकर लायी हूँ।
चाहे जितना दूध आप पीयें। दूध की कमी नहीं है। पर प्रभो ! एक बात याद रखिये।आज आप शेर से गीदड़ बनने क्यों जा रहे हैं? पैंतालीस वर्ष तक जिस प्रतिज्ञा को आपने निभाया, अब अन्तिम समय उसे भंग करके कायरता का परिचय क्यों दे रहे हैं?’ बाबा की आँखें खुल गयीं अरे, मन कितना धोखेबाज है, कितना चालाक है। मैं समझ गया।
बाबा माई के चरणों में झुक गये। ‘देवी! तुमने इस पापी मन के जाल से मुझे बचा लिया। नहीं तो, मैं आज मारा जाता। इस मनीराम का कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। यह न जाने कब धोखा दे दे।