एक समय स्वामी विवेकानन्द को इस बात का बड़ा दुःख हुआ। कि उन्होंने अभी तक ईश्वर का दर्शन नहीं किया, भगवान् की अनुभूति नहीं प्राप्त की। उस समय वे परिव्राजक(सन्यासी) जीवन में थे। उन्होंने अपने-आपको धिक्कारा कि मैं कितना अभागा हूँ कि मनुष्य – शरीर पाकर भी ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सका।
शरीर का सदुपयोग- Perfect use of body
शरीर का सदुपयोग
उन्हें बड़ी आत्मग्लानि हुई। उन्होंने वन में प्रवेश किया। सूर्य अस्ताचल को जा चुके थे। समस्त वन अन्धकार से परिपूर्ण था। स्वामी जी भूख से विह्वल थे। थोड़े ही समय के बाद उन्हें एक शेर दीख पड़ा। स्वामी जी प्रसन्नता से नाच उठे। भगवान ने ठीक समय पर इस शेर को भेजा है। बेचारा भूखा है।
मैं भी भूखा हूँ। पर मैं अपने शरीर को इससे बचाऊँ – क्यों? इस शरीर के द्वारा मैं ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर सका, इसलिये इसको रखने का कोई उद्देश्य ही नहीं है। स्वामी जी ने ऐसा सोचकर अपने-आपको सौंप देने का निश्चय किया। वे सिंह के सामने खड़े हो गये उसके खाद्य रूप में, पर शेर की हिंसात्मक वृत्ति उनके दर्शन से बदल गयी और वह दूसरे रास्तेपर चला गया।