एक सदाचारिणी ब्राह्मणी थी, उसका नाम था जबाला। उसका एक पुत्र था सत्यकाम। वह जब विद्याध्ययन करने योग्य हुआ, तब एक दिन अपनी माता से कहने लगा-माँ! मैं गुरुकुल में निवास करना चाहता हूँ। गुरु जी जब मुझसे नाम, गोत्र पूछेगे तो मैं अपना कौन गोत्र बतलाऊँगा? इस पर उसने कहा कि पुत्र! मुझे तेरे पिता से गोत्र पूछने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ; क्योंकि उन दिनों मैं सदा अतिथियों की सेवा में ही लगी रहती थी। अत एव जब आचार्य तुमसे गोत्रादि पूछे, तब तुम इतना ही कह देना कि मैं जबाला का पुत्र सत्यकाम हूँ। माता की आज्ञा लेकर सत्यकाम हारिद्रुमत गौतम ऋषि के यहाँ गया और बोला-मैं श्रीमान् के यहाँ ब्रह्मचर्यपूर्वक सेवा करने आया हूँ। आचार्य ने पूछा, ‘वत्स! तुम्हारा गोत्र क्या है? सत्यकाम ने कहा, भगवन्! मेरा गोत्र क्या है, इसे मैं नहीं जानता। मैं सत्यकाम जाबाल हूँ, बस, इतना ही इस सम्बन्ध में जानता हूँ। इस पर गौतम ने कहा-‘वत्स! ब्राह्मण को छोड़कर दूसरा कोई भी इस प्रकार सरल भाव से सच्ची बात नहीं कह सकता। जा, थोड़ी समिधा ले आ। मैं तेरा उपनयन-संस्कार करूँगा।
गो-सेवा से ब्रह्मज्ञान-Go-Seva to Brahm Gyan-Satkatha-Ank
गो-सेवा से ब्रह्मज्ञान
सत्यकाम का उपनयन करके चार सौ दुर्बल गायों को उसके सामने लाकर गौतम ने कहा-तू इन्हें वन में चराने ले जा। जब तक इनकी संख्या एक हजार न हो जाय, इन्हें वापस न लाना। उसने कहा-भगवन्! इनकी संख्या एक हजार हुए बिना मैं न लौटूंगा। सत्यकाम गायों को लेकर वन में गया। वहाँ वह कुटिया बनाकर रहने लगा और तन-मन से गौओं की सेवा करने लगा। धीरे-धीरे गायों की संख्या पूरी एक हजार हो गयी। तब एक दिन एक वृषभ (साँड़) ने सत्यकाम के पास आकर कहा–वत्स, हमारी संख्या एक हजार हो गयी है, अब तू हमें आचार्यकुल में पहुँचा दे। साथ ही ब्रह्मतत्त्व के सम्बन्ध में तुझे एक चरण का मैं सत्यन उपदेश देता हैं। वह ब्रह्म प्रकाशस्वरूप है, इसका दूसरा चरण तुझे अग्नि बतलायेंगे। प्रगलाम गौओं को हॉककर आगे चला। होने पर उसने गायों को रोक दिया और उन्हें जल पिलाकर वहीं रात्रि-निवास की व्यवस्था की। तत्पश्चात् काष्ठ लाकर उसने अग्नि जलायी। अग्नि ने कहा, सत्यकाम! मैं तो ब्रह्म का द्वितीय पाद बतलाता हूँ;
वह ‘अनन्त’ लक्षणात्मक है, अगला उपदेश तुझे हंस करेगा। दूसरे दिन सायंकाल सत्यकाम पुनः किसी सुन्दर जलाशय के किनारे ठहर गया और उसने गौओं के रात्रि- निवास की व्यवस्था की। इतने में ही एक हंस ऊपर से उड़ता हुआ आया और सत्यकाम के पास बैठकर बोला- ‘सत्यकाम!’ सत्यकाम ने कहा-‘भगवन् ! क्या आज्ञा है?’ हंसने कहा–’मैं तुझे ब्रह्म के तृतीय पाद का उपदेश कर रहा हूँ, वह ‘ज्योतिष्मान्’ है, चतुर्थ पाद का उपदेश तुझे मुद्ग (जलकुक्कुट) करेगा।’ दूसरे दिन सायंकाल सत्यकाम ने एक वटवृक्ष के नीचे गौओं के रात्रिनिवास की व्यवस्था की। अग्नि जलाकर वह बैठ ही रहा था
कि एक जलमुर्ग ने आकर पुकारा और कहा–’वत्स! मैं तुझे ब्रह्म के चतुर्थ पद का उपदेश करता हूँ, वह ‘आयतनस्वरूप’ है। इस प्रकार उन-उन देवताओं से सच्चिदानन्दघन – लक्षण परमात्मा का बोध प्राप्तकर एक सहस्र गौओं को लेकर सत्यकाम आचार्य गौतम के यहाँ पहुँचा। आचार्य ने उसकी चिन्तारहित, तेजपूर्ण दिव्य मुखकान्ति को देखकर कहा-‘वत्स! तू ब्रह्मज्ञानी के सदृश दिखलायी पड़ता है। सत्यकाम ने कहा, ‘भगवन्! मुझे मनुष्येतरों से विद्या मिली है। मैंने सुना है कि आपके सदृश आचार्य के द्वारा प्राप्त हुई विद्या ही श्रेष्ठ होती है, अतएव मुझे आप ही पूर्णरूप से उपदेश कीजिये। आचार्य बड़े प्रसन्न हुए और बोले-‘वत्स! तूने जो प्राप्त किया है, वही ब्रह्म- तत्त्व है। और उस सम्पूर्ण तत्त्व का पुनः ठीक उसी प्रकार उपदेश किया। जा० श० (छान्दोग्य० ४। ४-६)