एक सदाचारिणी ब्राह्मणी थी, उसका नाम था जबाला। उसका एक पुत्र था सत्यकाम। वह जब विद्याध्ययन करने योग्य हुआ, तब एक दिन अपनी माता से कहने लगा-माँ! मैं गुरुकुल में निवास करना चाहता हूँ। गुरु जी जब मुझसे नाम, गोत्र पूछेगे तो मैं अपना कौन गोत्र बतलाऊँगा? इस पर उसने कहा कि पुत्र! मुझे तेरे पिता से गोत्र पूछने का अवसर नहीं प्राप्त हुआ; क्योंकि उन दिनों मैं सदा अतिथियों की सेवा में ही लगी रहती थी। अत एव जब आचार्य तुमसे गोत्रादि पूछे, तब तुम इतना ही कह देना कि मैं जबाला का पुत्र सत्यकाम हूँ। माता की आज्ञा लेकर सत्यकाम हारिद्रुमत गौतम ऋषि के यहाँ गया और बोला-मैं श्रीमान् के यहाँ ब्रह्मचर्यपूर्वक सेवा करने आया हूँ। आचार्य ने पूछा, ‘वत्स! तुम्हारा गोत्र क्या है? सत्यकाम ने कहा, भगवन्! मेरा गोत्र क्या है, इसे मैं नहीं जानता। मैं सत्यकाम जाबाल हूँ, बस, इतना ही इस सम्बन्ध में जानता हूँ। इस पर गौतम ने कहा-‘वत्स! ब्राह्मण को छोड़कर दूसरा कोई भी इस प्रकार सरल भाव से सच्ची बात नहीं कह सकता। जा, थोड़ी समिधा ले आ। मैं तेरा उपनयन-संस्कार करूँगा।