सेवा-निष्ठा का चमत्कार
मर्यादा पुरुषोत्तम विश्व सम्राट् श्रीराघवेन्द्र अयोध्या के सिंहासन पर आसीन थे। सभी भाई चाहते थे कि प्रभु की सेवा का कुछ अवसर उन्हें मिले। किंतु हनुमानजी प्रभु की सेवा में इतने तत्पर रहते थे कि कोई सेवा उनसे बचती ही नहीं थी। सब छोटी-बड़ी सेवा वे अकेले ही कर लेते थे। इससे घबराकर भाइयों ने माता जानकी जी की शरण ली।
श्री जानकी जी की अनुमति से भरतजी, लक्ष्मणजी और शत्रुघन कुमार ने मिलकर एक योजना बनायी। प्रभु की समस्त सेवाओं की सूची बनायी गयी। कौन-सी सेवा कब कौन करेगा, यह उसमें लिखा गया। जब हनुमान जी प्रातः सरयू-स्नान करने गये, उस अवसर का लाभ उठाकर प्रभु के सम्मुख वह सूची रख दी गयी। प्रभु ने देखा कि उनके तीनों भाई हाथ जोड़े खड़े हैं। सूची में हनुमानूु जी का कहीं नाम ही नहीं थां। सर्वज्ञ रघुनाथ जी मुसकराये। उन्होंने चुपचाप सूची पर अपनी स्वीकृति के हस्ताक्षर कर दिये।
श्री हनुमान जी स्नान करके लौटे और प्रभु की सेवा के लिये कुछ करने चले तो शत्रुघन ने उन्हें रोक दिया – हनुमानूजी! यह सेवा मेरी है। प्रभु ने सबके लिये सेवा का विभाजन कर दिया है।
प्रभु ने जो विधान किया है या जिसे स्वीकार किया है, वह मुझे सर्वथा मान्य है। हनुमान जी खड़े हो गये। उन्होंने इच्छा की वह सूची देखने की और सूची देखकर बोले-इस सूची से बची सेवा मैं करूँगा।
हाँ, आप सूची से बची सेवा कर लिया करें। लक्ष्मणजी ने हँसकर कह दिया। परंतु हनुमानजी तो प्रभु की स्वीकृति की प्रतीक्षा में उनका श्री मुख देख रहे थे। मर्यादा पुरुषोत्तम ने स्वीकृति दे दी, तब पवनकुमार बोले – प्रभु जब जम्हाई लेंगे तो मैं चुटकी बजाने की सेवा करूँगा।
यह सेवा किसी के ध्यान में आयी ही नहीं थी। अब तो प्रभु स्वीकार कर चुके थे। श्रीहनुमान जी प्रभु के सिंहासन के सामने बैठ गये। उन्हें एकटक प्रभु के श्रीमुख की ओर देखना था क्योंकि जम्हाई आने का कोई समय तो है नहीं।
दिनभर किसी प्रकार बीत गया। स्नान, भोजन आदि के समय हनुमान जी प्रभु के साथ बने रहे। रात्रि हुई, प्रभु अपने अन्तःपुर में विश्राम करने पधारे, तब हनुमानजी भी पीछे-पीछे चले। अन्त:पुर के द्वार पर उन्हें सेविका ने रोक दिया -आप भीतर नहीं जा सकते।!’
हनुमानजी वहाँ से सीधे राजभवन के ऊपर एक कँगूरे पर जाकर बैठ गये और लगे चुटकी बजाने।
उधर अन्त:पुर में प्रभु ने जम्हाई लेने को मुख खोला तो खोले ही रहे। श्रीजानकी जी ने पूछा-“यह क्या हो गया आपको ?’ परंतु प्रभु मुख बंद न करें तो बोलें कैसे। घबराकर श्रीजानकीजी ने माता कौसल्या को समाचार दिया। माता दौड़ी आयीं। थोड़ी देर में तो बात पूरे राजभवन में फैल गयी। सभी माताएँ, सब भाई एकत्र हो गये। सब चकित, सब दुःखी; किंतु किसी को कुछ सूझता नहीं। प्रभु का मुख खुला है, वे किसी के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दे रहे हैं।
अन्त में महर्षि वसिष्ठ जी को सूचना दी गयी। वे तपोधन रात्रि में राजभवन पधारे। प्रभु ने उनके चरणों में मस्तक रखा किंतु मुख खुला रहा, कुछ बोले नहीं। सर्वज्ञ महर्षि ने इधर-उधर देखकर कहा – हनुमान् कहाँ हैं? उन्हें बुलाओ तो।
सेवक दौड़े हनुमान जी को ढूँढ़ने। हनुमानजी जैसे ही प्रभु के सम्मुख आये, प्रभु ने मुख बंद कर लिया। अब वसिष्ठजी ने हनुमान जी से पूछा – तुम कर क्या रहे थे?
हनुमान जी बोले – मेरा कार्य है – प्रभु को जम्हाई आये तो चुटकी बजाना। प्रभु को जम्हाई कब आयेगी, यह तो कुछ पता है नहीं। सेवा में त्रुटि न हो, इसलिये मैं बराबर चुटकी बजा रहा था।!
अब मर्यादा पुरुषोत्तम बोले – हनुमान् चुटकी बजाते रहें तो राम को जम्हाई आती ही रहनी चाहिये।
रहस्य प्रकट हो गया। महर्षि बिदा हो गये। भरतजी ने, अन्य भाइयों ने और श्रीजानकी जी ने भी कहा – पवनकुमार! तुम यह चुटकी बजाना छोड़ो। पहले जैसे सेवा करते थे, वैसे ही सेवा करते रहो।’ यह मैया सीता जी और भरत-लक्ष्मण जी आदि का विनोद था। वे श्रीहनुमान जी को सेवा से वश्चित थोड़े ही करना चाहते थे।