व्रत का विधान
सोलह तार का डोरा लेकर उसमें सोलह गाँठ लगा लीजिये। उसके बाद हल्दी की गाँठ घिसकर डोरे को रंग लीजिये। रंगने के बाद डोरे को हाथ की कलाई में बांध लीजिये। यह ब्रत आश्विन कृष्ण अष्टमी तक चलता है। व्रत पूरा हो जाने पर वस्त्र से एक मंडप बनायें। उसमें लक्ष्मी जी की प्रति रखें। प्रतिमा को पंचामृत से स्नान करावें। सोलह प्रकार से पूजा करावें।
रात्रि में तारागणों को पृथ्वी के प्रति अर्ध्य देवें ओर लक्ष्मी की प्रार्थना करें। व्रत रखने वाली स्त्री ब्राह्मणों को भोजन करायें। उनके हवन करायें और खीर की आहुति दें। चन्दन, तालपत्र, पुष्पमाला, अक्षत, दूर्वा, लाल सूत, सुपारी, नारियल तथा नाना प्रकार के पदार्थ, नये सूप में सोलह-सोलह की संख्या में रखें, फिर नये दूसरे सूप को ढककर निम्न मंत्र को पढ़कर लक्ष्मीजी को अर्पण करें।
क्षीरोदार्णवसम्भूता लक्ष्मीएचन्द्रसहोदरा।
ब्रतेनानेन सन्तुष्टा भव भर्तोवपुबल्लभा॥
“ क्षीरसागर में प्रगट हुई लक्ष्मी, चन्द्रमा की बहन, श्रीविष्णुवल्लभा, महालक्ष्मी इस ब्रत से सन्तुष्ट हों।”
इसके बाद चार ब्राह्मण ओर सोलह ब्राह्मणियों को भोजन करायें और दक्षिणा देकर विदा करें। उसके बाद स्वयं भोजन ग्रहण करें। इसी प्रकार से जो लोग ब्रत करते हैं, वे लोग इस लोक में सुख भोगकर अन्त समय में अधिक समय तक लक्ष्मीलोक में सुख की प्राप्ति करते हें।
एक समय महर्षि श्रीव्यास जी हस्तिनापुर पधारे तो महाराज धुृतराष्ट्र उनका आदर सत्कार कर राजमहल में ले आये। तब गान्धारी व माता कुन्ती ने हाथ जोड़कर कहा-हे महामुने! आप त्रिकालदर्शी है, अत: आप हमको कोई ऐसा सरल ब्रत व पूजन बताइये, जिससे हमारी राज्यलक्ष्मी, सुख, पुत्र, पौत्र व परिवार सदा सुखी रहे। तब व्यासजी ने कहा मैं एक ऐसे व्रत का वर्णन करता हूं, जिससे घर में लक्ष्मीजी का निवास होकर सुख-वैभव की वृद्धि होगा, वह महालक्ष्मी का ब्रत हे, जो प्रतिवर्ष आश्विन कृष्णा अष्टमी को किया जाता है।
हे महामुनी! इस ब्रत की विधि हमें सविस्तार बताने की कृपा करें। तब व्यासजी बोले-हे देवी! यह ब्रत भाद्रपद शुक्ला अष्टमी से आरंभ करें। इस दिन सुबह मन में व्रत का संकल्प कर किसी पवित्र जलाश्य, नदी, तालाब, कूप जल से स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनें, फिर ताजा दूब से महालक्ष्मी को जल छिड़ककर स्नान करायें, फिर 16 धागों का गण्डा बनाकर प्रतिदिन एक एक गांठ लगाये। इसी प्रकार 16 दिन तक 16 गांदेका गण्डा तैयार कर आश्विन कृष्ण अष्टमी को ब्रत करें, मण्डप बन उसके नीचे मिट्टी के हाथी पर श्री महालक्ष्मी प्रतिमा स्थापित करके पुण मालाओं से लक्ष्मीजी व हाथी का पूजन कर अनेकों प्रकार के पकवान नैवेद्य समर्पित करें।
इस प्रकार श्रद्धाभक्ति सहित महालक्ष्मी जी का व्रत एवं पूजन करने से आप लोगों की राज्यलक्ष्मी सदा स्थिर बनी रहेगी। इस प्रकार व्रत का विधान बताकर व्यासजी अपने आश्रम को आ गये। इधर समयानुसार भाद्रपद शुक्ला अष्टमी से राजघराने व नगर की समस्त नारियों ने श्रीमहालक्ष्मी ब्रत को आंरभ कर दिया। बहुत सी स्त्रियां गांधारी के साथ इस व्रत में साथ देने लगी तथा कुछ स्त्रियां माता कुन्ती के साथ ब्रत आरम्भ करने लगी, इस तरह गान्धारी व कुन्ती में कुछ द्वेषभाव चलने लगा। ऐसा होते-होते जब ब्रत का सोलहवां दिन अश्विन कृष्णा अष्टमी का आया तो उस दिन प्रात: काल से ही नगर की स्त्रियों ने उत्सव मनाना शुरू कर दिया ओर सभी नर नारी राजमहल में गांधारी के यहां आकर तरह-तरह के महालक्ष्मी के मण्डप ओर मिट्टी के हाथी बनाने लगे।
गान्धारी ने नगर की सभी प्रतिष्ठित स्त्रियों को बुलाने के लिये सेवक भेजा, परन्तु माता कुन्ती को नहीं बुलाया गया। राजमहल में वाद्यों की ध्वनि गूंजने लगी, सारे हस्तिनापुर में खुशी मनाई जा रही थी। इधर माता कुन्ती ने अपना अपमान समझकर ‘बड़ा रंज मनाया ओर ब्रत की तैयारी नहीं की। इतने में महाराज युधिष्ठिर अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव पांचों पाण्डव उपस्थित हुए, अपनी माता को रंज में उदास देख अर्जुन बोला-हे माता! आप इतनी दुखी क्यों हो? तब माता कुन्ती ने कहा-हे पुत्र! यह अति अपमान हे, इससे बढ़कर और क्या दुख हो सकता है? आज हमारे नगर में श्री महालक्ष्मी व्रत का उत्सव मनाया जा रहा है और उस उत्सव में राजरानी गांधारी ने समस्त नगर की स्त्रियों को सम्मान सहित बुलाया है, परन्तु द्वेष के कारण मुझे अपमानित करने के लिए उत्सव में नहीं बुलाया हे।
अर्जुन ने कहा-हे माता! क्या यह पूजा सिर्फ दुर्योधन के महल में ही हो सकती है? या उसे आप अपने घर में कर सकती है, परन्तु वह साज सम्मान इतनी जल्दी तैयार नहीं हो सकता। क्योंकि गांधारी के सौ पुत्र ने मिट्टी का एक विशाल हाथी तैयार करके पूजन के लिये सजाया है वह सब तुमसे नहीं बन सकेगा? उस उत्सव की तैयार आज सुबह से ही हो रही है। अर्जुन बोले-हे माता! आप पूजन की तैयार कर सारे नगर को बुलावा भेज दें, मैं आपको पूजन के लिए इन्द्रलोक से इन्द्र के एरावत हाथी को बुलाकर आपको पूजन के लिए उपस्थित किये देता हूं, आप अपनी तैयारी करें। इधर माता कुन्ती ने भी सारे नगर मेँ प्रजा का ढिंढोर पिटवा दिया ओर पूजा की विशाल तैयारी होने लगी।
तब अर्जुन ने इन्द्रदेव को ऐरावत भेजने के लिए पत्र लिखा और एक दिव्य बाण से बांधकर उसे धनुष पर रखकर देवलोक की सभा में भेज दिया। इन्द्रदेव ने बाण से पत्र खोलकर पढ़ा तो साग्थी को तुग्न्त आज्ञा दी कि ऐरावत को पूर्णरूप से सजा कर तुरन्त बाण के साथ हस्तिनापुर में उतार दो। तब महावत ने तरह तरह के साज सामान से ऐरावत को सजवाया और बाण मार्ग से हस्तिनापुर को चला। इधर मारे नगर में शोर मच गया कि कुन्ती के घर इन्द्र का ऐरावत हाथी स्वर्ग से पृथ्वी पर उतार कर पूजा जायेगा। इस समाचार को सुन नगर के सभी नर नारी, बालक वृद्धों की भीड़ एकत्र होने लगी। गांधारी के महल में भी हल चल मच गई। नगर की स्त्रियां पूजन थाली लेकर माता कुन्ती के भवन की ओर दोड़कर आने लगी। देखते-देखते सारा भवन पूजन करलने वाली नारियों से ठसाठस भर गया। माता कुन्ती ने ऐरावत को खड़ा करने हेतु अनेक रंगों के चौक पुरवाकर नवीन रेशमी वस्त्र बिछवा दिया। हस्तिनापुर वासी स्वागत तैयारी में फूलमाला, अबीर, केशर हाथों में लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे। इधर इन्द्र की आज्ञा पाकर ऐरावत स्वर्ग से पृथ्वी पर उतरने लगा। ऐरावत के दर्शन होते ही सारे नर नारियों ने जय जय कार करना आरम्भ कर दिया। सांयकाल के समय ऐरावत माता कुन्ती के भवन के चोक में उतार आया, तब सब नर नारियों ने पुष्प, माला अबीर, केशर आदि चढ़ाकर उसका स्वागत किया। पुरोहित द्वारा ऐगावत पर महालक्ष्मी जी की मूर्ति स्थापित करके वेद मंत्रो द्वारा पूजज किया गया।
नगरवासियों ने भी लक्ष्मी पूजन का स्वागत करके ऐरावत की पूजी की, अनेक प्रकार के पकवान लेकर ऐरावत को खिलाये गये, ऊपर से यमुना जल पिलाया गया, फिर तरह तरह के पुष्पों की ऐरावत पर वर्षा कौ गई। पुरोहित द्वारा सरस्वती वाचन करके नारियों द्वारा सोलहवीं गांठ लगाकर लक्ष्मी जी के सामने समर्पण किया, ब्राह्मणों हेतु पकवान मेवा, मिठाई आदि की भोजन व्यवस्था की गई। फिर बस्त्र, द्रव्य, सुवर्ण, अन्न, आभूषण देकर नारियों ने महालक्ष्मी पर पुष्पाजलि अर्पित की। तत्पश्चात् पुरोहित द्वारा महालक्ष्मी का विसर्जन किया गया है।
अन्त में नारियों ने ऐरावत को विदा कर इन्द्रलोक को भेज दिया। महाराज सूत जी ने कहा-हे ऋषियों! इस प्रकार जो स्त्री महालक्ष्मी का व्रत करती है, उसका घर लक्ष्मीजी की कृपा से सदा धन, धान्य व मांगलिक वस्तुओं से पूर्ण रहता है।