भगवान् सदा साथ हैं।
एक महात्मा थे। उन्होंने स्वयं ही यह घटना अपने एक मित्र को सुनायी थी। वे बोले-मेरी आदत है कि मैं तीन बजे उठकर ही शौच-स्नान कर लेता हूँ और भजन करने बैठ जाता हूँ। एक बार मैं वृन्दावन के समीप ठहरा हुआ था। वर्षा के दिन थे, यमुना जी बहुत बढ़ी हुई थीं। में तीन बजे उठा शौच के लिये चल पड़ा। घोर अंधकार था और मूसलधार वृष्टि हो रही थी। आगे जाने पर मुझे भय लगने लगा। मैंने भगवान् को स्मरण किया। तुरंत ही मुझे ऐसा लगा कि मानो मेरे भीतर ही कोई अत्यन्त मधुर स्वर में बिलकुल स्पष्ट मुझे कह रहा हो-डरते क्यों हो
भाई! मैं तो सदा ही तुम्हारे साथ रहता हूँ। जो मेरा आश्रय पकड़ लेता है, उसके साथ ही मैं निरन्तर रहता हूँ। बस, यह सुनते ही मेरा भय सदा के लिये भाग गया। अब मैं कहीं भी रहूँ-मुझे ऐसा लगता है कि भगवान् मेरे साथ हैं। हाँ, उनके प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होते। उन महात्मा को एक बड़ा विचित्र अनुभव बचपन में भी हुआ था।
एक महात्मा थे। सर्वत्र घूमा करते थे। कहीं एक जगह टिककर नहीं रहते थे। हाँ, उनके मन में एक इच्छा सदा बनी रहती थी-कहाँ जाऊँ कि मुझे भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शन हो जायें। इस प्रकार पंद्रह- बीस वर्ष बीत गये पर भगवान् के दर्शन नहीं हुए।
एक दिन उनके मन में आया-चलो, गिरिराज के पास, वहाँ तो दर्शन हो ही जायँगे। इसी विचार से वे जाकर गिरिराज की परिक्रमा करने लगे। एक दिन वे थककर बैठे थे एक पेड़ की छाया में विश्राम कर रहे थे। इतने में दीखा- श्रीराधाकृष्ण एक झाड़ी की ओट से निकलकर चले जा रहे हैं । देखते ही महात्मा की विचित्र दशा हो गयी। किंतु इतने में ही न जाने कहाँ से दो बंदर लड़ते हुए महात्मा जी के बिलकुल पास में ही कूद पड़े।
महात्माजी का ध्यान आधे क्षण के लिये-न जाने कैसे- उधर से हटकर बंदर की ओर चला गया। इतने में तो प्रिया-प्रियतम अन्तर्हित हो चुके थे। फिर तो महात्माजी फूट-फूटकर रोने लगे।