वात्सल्य
एक महिला थी। उसका नाम था कान्हबाई। वह श्रीकृष्ण के बाल-रूप की भक्ति करती थी। कहा जाता है कि जब वह श्रीकृष्ण को पालने में झुलाती, तब वे स्वयं मूर्तिमान् हो जाते और वह उनको जिस प्रकार एक छोटे बालक को झुलाया जाता है। वैसे ही झुलाने लगती। होते-होते श्री कृष्ण उसको बिलकुल माता की तरह आनन्द देने लगे।
वे अब हर समय उसके सामने प्रकट रहते। वे कभी उसको खाने के लिये कुछ बनाने के लिये कहते, कभी और
कुछ काम करने के लिये कहते रहते तथा वह भक्तिमती महिला सदा उनकी इच्छा के अनुरूप कार्य करती रहती।
एक बार वह भगवान् को शयन कराके किसी उत्सव में चली गयी। किसी कारण वश रात्रि को न लौट सकी। अधिक रात्रि बीतने पर कान्हबाई तथा वहा उपस्थित अन्यान्य सज्जनों में से भी पाँच-सात को ऐसा सुनायी पड़ने लगा-मानो कोई बालक रोता हुआ कह रहा है-‘मैया! मुझे डर लग रहा है।’ यह सुनते ही कान्हबाई ने कहा कि ‘मेरा बच्चा रो रहा है।’ और उसी समय वह घबरायी हुई-सी वहाँ से उठकर घर चली गयी। और जाकर भगवान् को थपथपा कर – – फुसलाकर शयन कराया।
जब उसका अन्तकाल समीप आया, तब श्रीकृष्ण ने कहा- मैया! अब तू यहाँ से चल। यह कहकर भगवान् उसकी आत्मा के साथ चले गये तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।
इस तरह अपने भाव के कारण उसने भगवान को भी अपने वश में कर लिया।