Home Satkatha Ank उल्लास के समय उदासी क्यों – Why did Lord Krishna call Karna great donor?

उल्लास के समय उदासी क्यों – Why did Lord Krishna call Karna great donor?

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Ullaas Ke Samay Udaasi Kyo
उल्लास के समय उदासी क्यों 
महाभारत के युद्ध का सत्रहवां दिन समाप्त हो गया था। महारथी कर्ण रणभूमि में गिर चुके थे। पाण्डव शिविर में आनन्दोत्सव हो रहा था। ऐसे उल्लास के समय श्रीकृष्ण चन्द्र खिन्न थे। वे बार बार कर्ण की प्रशंसा कर रहे थे -‘आज पृथ्वी पर से सच्चा दानी उठ गया।’ धर्मराज युधिष्टिर के लिये किसी के भी धर्माचरण की प्रशंसा सम्मान्य थी; किंतु अर्जुन अपने प्रतिस्पर्धी की प्रशंसा से खिन्न हो रहे थे।
श्रीकृष्णचन्द्र बोले – ‘ धनञ्जय ! देखता हूँ कि तुम्हें मेरी बात अत्युक्ति पूर्ण जान पड़ती है। एक काम करो, तुम मेरे साथ चलो और दूर से देखो। महादानी कर्ण अभी मरे नहीं हैं। उनकी दानशीलता अब भी तुम देख सकते हो।’ रात्रि हो चुकी थी। युद्ध-भूमि में गीदड़ों का राज्य था। जहाँ-तहाँ कुछ आहत कराह रहे थे। शस्त्रों के खण्ड, बाणों के टुकड़े, लाशों की ढेरियाँ, रक्त की कीचड से पूर्ण युद्धभूमि बड़ी भयंकर थी।
Daanveer Karna
अर्जुन को श्रीकृष्णचन्द्र ने कुछ दूर छोड़ दिया और स्वयं ब्राह्मण का वेश बनाकर पुकारना प्रारम्भ किया – ‘कर्ण! दानी कर्ण कहाँ हैं!’ ‘मुझे कौन पुकारता है ? कौन हो भाई !” बड़ कष्ट से भूमि पर मूर्छित प्राय पड़े कर्ण ने मस्तक उठाकर कहा। ब्राह्मण कर्ण के पास आ गये। उन्होंने कहा – ‘ मैं बड़ी आशा से तुम्हारा नाम सुनकर तुम्हारे पास आया हूँ। मुझे थोड़ा सा स्वर्ण चाहिये – बहुत थोड़ा-सा।!
“आप मेरे घर पधारें! मेरी पत्नी आपको, जितना चाहेंगे, उतना स्वर्ण देगी।” कर्ण ने ब्राह्मण से अनुरोध किया। परंतु ब्राह्मण कोई साधारण ब्राह्मण हों तब तो घर जायं। वे तो बिगड़ उठे – ‘नहीं देना है तो ना कर दो, इधर उधर दौड़ाओ मत। मैं कहीं नहीं जाऊँगा। मुझे तो दो सरसों-जितना स्वर्ण चाहिये।’ कर्ण ने कुछ सोचा और बोले – ‘मेरे दाँतों में स्वर्ण लगा है। आप कृपा करके निकाल ले।’
ब्राह्मण ने घृणा से मुख सिकोड़ा – ‘ तुम्हें लज्जा नहीं आती एक ब्राह्मण से यह कहते कि वह जीवित मनुष्य के दाँत तोड़े।’  इधर-उधर देखा कर्ण ने। पास एक पत्थर दीखा। किसी प्रकार घसीटते हुए वहाँ पहुँचे और पत्थर पर मुख द मारा। दाँत टूट गये। अब बोले दाँतों को हाथ में लेकर – ‘ इन्हें स्वीकार करें प्रभु!’
‘छि: ! रक्त से सनी अपवित्र अस्थि।’ ब्राह्मण दो पद पीछे हट गये। कर्ण ने खड़्ग से दाँत में से सोना निकाला। जब ब्राह्मण ने उसे अपवित्र बताया और कर्ण को धनुष देना भी अस्वीकार कर दिया, तब कर्ण फिर घसीटते हुए धनुष के पास पहुँचे। किसी प्रकार सिर से दबाकर धनुष चढ़ाया और उस पर बाण रखकर वारुणास्त्र से जल प्रकट करके दाँत से निकले स्वर्ण को धोया। अब वे श्रद्धापूर्वक वह स्वर्ण ब्राह्मण को देनेको उद्यत हुए।
‘वर माँगो, वीर! श्रीकृष्णचन्द्र अब ब्राह्मण का वेश छोड़कर प्रकट हो गये थे। अर्जुन बहुत दूर लज्जित खड़े थे। कर्ण ने इतना ही कहा – ‘ त्रिभुवन के स्वामी देहत्याग के समय मेरे सम्मुख उपस्थित हैं, अब माँगने को रह क्‍या गया ?’ कर्ण की देह ढुलक गयी श्याम सुन्दर के श्रीचरणों में धन्य दानी भक्त कर्ण! –सु० सिं०
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