लक्ष्मी का वास कहाँ हैँ?
एक सेठ रात्रि मे सो रहे थे। स्वपन मे उन्होंने देखा की लक्ष्मी जी कह रही हैँ – सेठ अब तेरा पुण्य समाप्त हो गया है इसलिये तेरे घर से मैं थोड़े दिनों में चली जाऊँगी। तुझे मुझ से जो माँगना हो, वह माँग ले।
सेठ ने कहा-कल सवेरे अपने कुटुम्ब के लोगों से सलाह करके जो माँगना होगा माँग लूँगा।
सवेरा हुआ। सेठ ने स्वपन की बात कही। परिवार के लोगों में से किसी ने हीरा – मोती आदि माँगने को कहा किसी ने स्वर्ण राशि मॉगने की सलाह दी, कोई अत्र मॉगने के पक्ष मे था और कोई वाहन या भवन सबसे अन्त मे सेठ की छोटी बहू बोली- पिताजी! जब लक्ष्मी जी को जाना ही है तो ये वस्तुएँ मिलने पर भी टिकेंगी कैसे? आप इन्हें माँगेंगे, तो भी ये मिलेंगी नहीं। आप तो माँगिये कि कुटुम्ब मेँ प्रेम बना रहे। कुटुम्ब में सब लोगों में परस्पर प्रीति रहेगी तो विपत्ति के दिन भी सरलता से कट जायेंगे।
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सेठ को छोटी बहू की बात पसंद आयी। दूसरी रात्रि में स्वपन में उन्हें फिर लक्ष्मी जी के दर्शन हुए। सेठ ने प्रार्थना की आप जाना ही चाहती हैं तो प्रसन्नता से जायँ किंतु यह वरदान दें कि हमारे कुटुप्तियों में परस्पर प्रेम बना रहे । लक्ष्मी जी बोलीं-‘सेठ! ऐसा वरदान तुमने माँगा कि मुझे बाँध ही लिया। जिस परिचारके सदस्योंमे’ परस्पर प्रीति है, वहाँसै मैं जा कैसे सकती हूँ।’ गुरचौ यत्र मूज्यन्ते यत्राहार्न सुसंस्कृतम्। अदन्तकत्नहों यत्र तत्र शक्र वसाम्यहम्।। देवी लदभीने इन्द्रसे कहा है…’ इन्द्र ! जिस घरमे’ गुरुजनोंका सत्कार होता है, दूसरोंके साथ जहाँ सभ्यता… पूर्वक बात की जाती है और जहाँ मुखसे बोलकर कोई कलह नहीं करता (दुसरो के प्रति मन में क्रोध आने पर भी जहॉ लोग चुप ही रह जाते हैं) मैं वहीँ रहती हूँ। -सुं० सिं०