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The choice is sorrow, not happiness – वरणीय दुःख है, सुख नहीं

वरणीय दुःख है, सुख नहीं

सुख के माथे सिल परो जो नाम हृदय से जाय।
बलिहारी वा दुःख की जो पल-पल नाम रटाय॥ 
 
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। विजयी धर्मराज सिंहासनासीन हो चुके थे। अश्वत्थामा ने पाण्डवों का वंश ही नष्ट करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। किंतु जनार्दन(कृष्ण जी) ने पाण्डवों की और उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की भी उससे रक्षा कर दी। अब वे श्रीकृष्णचन्द्र द्वारका जाना चाहते थे। इसी समय देवी कुन्ती उनके पास आयीं। वे प्रार्थना करने लगीं। बड़ी अद्भुत प्रार्थना की उन्होंने। अपनी प्रार्थना में उन्होंने ऐसी चीज माँगी, जो कदाचित्‌ ही कोई माँगनेका साहस करे।
preferable is sorrow, not happiness
उन्होंने माँगा-
विपद: सन्तु नः शश्वत्‌ तत्र तत्र जगदगुरो।
भवतो दर्शन॑ यत्‌ स्यादपुनर्भवदर्शनम्‌॥
हे जगदगुरो। जीवन में बार-बार हम पर विपत्तियाँ ही आती रहें। क्योंकि जिनका दर्शन होने से जीव फिर संसार में नहीं आता, उन आपका दर्शन तो उन (विपत्तियों) में ही होता है। यह देवी कुंती का अपना अनुभव है। उनका जीवन विपत्तियों में ही बीता और विपत्तियाँ भगवान्‌ का वरदान हैं, उनमें वे मंगलमय निरन्तर चित्त में निवास करते हैं, यह उन्होंने भली प्रकार अनुभव किया। अब उनके पुत्रों का राज्य निष्कण्टक हो गया। उन्हें लगा कि विपत्तिरूपी निधि अब हाथ से चली गयी। इसी से श्याम सुन्दर से विपत्तियों का वरदान माँगा उन्होंने।

प्रमादी सुखी जीवन धिक्कार के योग्य है। धन्य है वह विपदग्रस्त जीवन का दुःखपूरित क्षण, जिसमें वे अखिलेश्वर स्मरण आते हैं।
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