Home Satkatha Ank मृत्यु का कारण प्राणी का अपना ही कर्म है । – The cause of death is the human’s own karma

मृत्यु का कारण प्राणी का अपना ही कर्म है । – The cause of death is the human’s own karma

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Mirtyu Ka Karan
मृत्यु का कारण प्राणी का अपना ही कर्म है। 
 

प्राचीनकाल में एक गौतमी नाम की वृद्धा ब्राह्मणी थी। उसके एकमात्र पुत्र को एक दिन सर्प ने काट लिया, जिससे वह बालक मर गया। वहाँ पर अर्जुनक नामक एक व्याध इस घटना को देख रहा था। उस व्याध ने फंदे में सर्प को बाँध लिया और उस ब्राह्मणी के पास ले आया। ब्राह्मणी से व्याध ने पूछा – ‘देवि! तुम्हारे पुत्र के हत्यारे इस सर्प को मैं अग्नि में डाल दूँ या काटकर डुकड़े-टुकड़े कर डालूँ?’ धर्मपरायणा गौतमी बोली-अर्जुनक ! तुम इस सर्प को छोड़ दो।

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इसे मार डालने से मेरा पुत्र तो जीवित होने से रहा और इसके जीवित रहने से मेरी कोई हानि नहीं है। व्यर्थ हत्या करके अपने सिर पर पाप का भार लेना कोई बुद्धिमान्‌ व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता।’ व्याध ने कहा–‘देवि! वृद्ध मनुष्य स्वभाव से दयालु होते हैं; किंतु तुम्हारा यह उपदेश शोकहीन मनुष्यों के योग्य है। इस दुष्ट सर्प को मार डालने की तुम मुझे तत्काल आज्ञा दो।’ व्याध ने बार-बार सर्प को मार डालने का आग्रह किया; किंतु ब्राह्मणी ने किसी प्रकार उसकी बात स्वीकार नहीं की। इसी समय रस्सी में बँधा सर्प मनुष्य के स्वर में बोला–‘ व्याध! मेरा तो कोई अपराध है नहीं।
मैं तो पराधीन हूँ, मृत्यु की प्रेरणा से मैंने बालक को काटा है।’ अर्जुनक पर सर्प की बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह क्रोध पूर्वक कहने लगा–‘दुष्ट सर्प! तू मनुष्यको भाषा बोल सकता है. यह जानकर मैं डरूँगा नहीं और न तुझे छोड़ूँगा । तूने चाहे स्वयं यह पाप किया या किसीके कहनेसे किया; परंतु पाप तो तूने ही किया। अपराधी तो तू ही है। अभी मैं अपने डंडे से तेरा सिर कुचलकर तुझे मार डालूँगा।’

सर्प ने अपने प्राण बचाने की बहुत चेष्टा की। उसने व्याध को समझाने का प्रयत्न किया कि ‘किसी अपराध को करने पर भी दूत, सेवक तथा शस्त्र अपराधी नहीं माने जाते। उनको उस अपराध में लगाने वाले ही अपराधी माने जाते हैं। अत: अपराधी मृत्यु को मानना चाहिये।’

सर्प के यह कहने पर वहाँ शरीर धारी मृत्यु देवता उपस्थित हो गया। उसने कहा–‘सर्प! तुम मुझे क्‍यों अपराधी बतलाते हो? मैं तो काल के वश में हूँ। सम्पूर्ण लोकों के नियन्‍ता काल-भगवान्‌ जैसा चाहते हैं, मैं वैसा ही करता हूँ।’

वहाँ पर काल भी आ गया। उसने कहा-व्याध! बालक की मृत्यु में न सर्प का दोष है, न मृत्यु का और न मेरा ही। जीव अपने कर्मो के ही वश में है। अपने कर्मो के ही अनुसार वह जन्मता है और कर्मो के अनुसार ही मरता है। अपने कर्म के अनुसार ही वह सुख या दुःख पाता है। हम लोग तो उसके कर्म का फल ही उसको मिले, ऐसा विधान करते हैं। यह बालक अपने पूर्वजन्म के ही कर्मदोष से अकाल में मर गया।’
काल की बात सुनकर ब्राह्मणी गौतमी का पुत्र शोक दूर हो गया। उसने व्याध को कहकर बन्धन में जकड़े सर्प को भी छुड़वा दिया। –सु० सिं०
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