प्राचीनकाल में एक गौतमी नाम की वृद्धा ब्राह्मणी थी। उसके एकमात्र पुत्र को एक दिन सर्प ने काट लिया, जिससे वह बालक मर गया। वहाँ पर अर्जुनक नामक एक व्याध इस घटना को देख रहा था। उस व्याध ने फंदे में सर्प को बाँध लिया और उस ब्राह्मणी के पास ले आया। ब्राह्मणी से व्याध ने पूछा – ‘देवि! तुम्हारे पुत्र के हत्यारे इस सर्प को मैं अग्नि में डाल दूँ या काटकर डुकड़े-टुकड़े कर डालूँ?’ धर्मपरायणा गौतमी बोली-अर्जुनक ! तुम इस सर्प को छोड़ दो।
सर्प ने अपने प्राण बचाने की बहुत चेष्टा की। उसने व्याध को समझाने का प्रयत्न किया कि ‘किसी अपराध को करने पर भी दूत, सेवक तथा शस्त्र अपराधी नहीं माने जाते। उनको उस अपराध में लगाने वाले ही अपराधी माने जाते हैं। अत: अपराधी मृत्यु को मानना चाहिये।’
सर्प के यह कहने पर वहाँ शरीर धारी मृत्यु देवता उपस्थित हो गया। उसने कहा–‘सर्प! तुम मुझे क्यों अपराधी बतलाते हो? मैं तो काल के वश में हूँ। सम्पूर्ण लोकों के नियन्ता काल-भगवान् जैसा चाहते हैं, मैं वैसा ही करता हूँ।’