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कहानी – धन्य कौन | Story Who is Blessed |

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Khaani Dhany Kon

कहानी धन्य कौन

एक बार मुनियों में परस्पर इस विषय पर बड़ा विवाद हुआ कि किस समय थोड़ा-सा भी पुण्य अत्यधिक फलदायक होता है तथा कौन उसका सुविधापूर्वकअनुष्ठान कर सकता है? अन्त में वे इस संदेह के निवारण के लिये महामुनि व्यास जी के पास गये।

उस समय दैववशात्‌ वे गंगा जी में स्नान कर रहे थे। ज्यों ही ऋषिगण वहाँ पहुँचे, व्यासजी डुबकी लगाकर ऊपर उठे और ऋषियों कों सुनाकर जोर से बोले – कलियुग ही श्रेष्ठ है, कलियुग ही श्रेष्ठ है। यह कहकर वे पन: जलमग्र हो गये। थोड़ी देर बाद जब वे जल से एन: बाहर निकले, तब शुद्र ही धन्य है, शुद्र ही धन्य है यों कहकर फिर डुबकी लगा ली।
Rishi Muni Ved Vyas ji Kahani in hindi
इस बार जब वे जल से बाहर आये, तब – स्त्रियाँ ही धन्य हैं, स्त्रियों ही साधु हैं। उनसे अधिक धन्य कौन है ?’ यह वाक्य बोल गये और नियमानुसार ध्यानादि नित्यकर्म में लग गये। तदनन्तर जब वे ध्यानादि से निवृत्त हुए, तब वे मुनिजन उनके पास आये। वहाँ जब वे अभिवादनादि के बाद शांत होकर बैठ गये, तब सत्यवती नन्दन व्यासदेव ने उनके शुभागमन का कारण पूछा।
ऋषियों ने कहा -“’ हमें आप पहले यह बताइये कि आपने जो “कलियुग ही श्रेष्ठ है, शुद्र ही धन्य हैं, स्त्रियाँ ही धन्य हैं! यह कहा – इसका आशय क्‍या है? यदि कोई आपत्ति न हो तो पहले यही बतलाने का कष्ट करें। तदनन्तर हम लोग अपने आने का कारण कहेंगे।

व्यासदेव जी बोले – ऋषियो! जो फल सत्ययुग में दस वर्ष तप, ब्रह्मचर्य और धर्माचरण करने से प्राप्त होता है, वही त्रेता में एक वर्ष, द्वाप में एक मास तथा कलियुग में केवल एक दिन में प्राप्त होता है।* इसी कारण मैंने कलियुग को श्रेष्ठ कहा है। जो फल सत्ययुग में योग, त्रेता में यज्ञ और द्वापर में पूजा करने से प्रात्त होता है, वही फल कलियुग में केशव का नाम कीर्तन करने मात्र से मिल जाता है।
ऋषियो। कलियुग में अत्यल्प श्रम, अत्यल्प काल में अत्यधिक पुण्य की प्राप्ति हो जाती है, इसीलिये मैंने कलियुग को श्रेष्ठ कहा है।’
इसी प्रकार द्विजातियों को उपनयन पूर्वक ब्रह्मचर्यअत का पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है। तत्तद्धमॉ के अनुष्ठान में बडा श्रम और शक्ति का व्यय होता है। इस प्रकार बड़े क्लेश से उन्हें पुण्यों की प्राप्त होती है पर शूद्र तो केबल द्विजों को सेवा से ही प्रसन्नकर अनायास वे पुण्य प्राप्त कर लेता है।
और स्त्रियों को भी ये पुण्य केवल मन, वचन, कर्म से अपने पति की सेवा करने से ही उपलब्ध हो जाते हैं, इसीलिये मैंने स्त्री ही धन्य हैं, स्त्रियाँ ही साधु हैं। इनसे धन्य और कौन है!
ये शब्द कहे थे। अस्तु, अब कृपया आप लोग यह बतलायें कि आपके आने का कौन-सा शुभ कारण है?’! ऋषियोंने कहा–‘ महामुने ! हम लोग जिस प्रयोजन से आये थे, वह कार्य हो गया। हम लोगों में यही विवाद छिड़ गया था कि अल्पकाल में कब अधिक पुण्य अर्जित किया जा सकता है तथा उसे कौन सम्पादित कर सकता है। वह आपके इस स्पष्टीकरण से समाप्त तथा निर्णीत हो चुका।
व्यासदेव ने कहा – ऋषियो! मैंने ध्यान से आपके आने की बात जान ली थी तथा आपके हृदगत भावों को भी जान गया था। अतएव मैंने उपर्युक्त बातें कहीं और आपलोगों को भी साधु-साधु कहा था। वास्तव में जिन पुरुषों ने गुणरूप जल से अपने सारे दोष धो डाले हैं, उनके थोड़े-से ही प्रयत्न से कलियुग में धर्म सिद्ध हो जाता है। इसी प्रकार शुद्रों को द्विज सेवा तथा स्त्रियों को पतिसेवा से अनायास ही महान्‌ धर्म की सिद्धि, विशाल पुण्यराशि की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार आपलोगों की अभीष्ट वस्तु मैंने बिना पूछे ही बतला दी थी। तदनन्तर उन्होंने व्यासजी का पूजन करके उनकी बार-बार प्रशंसा की और वे जैसे आये थे, वैसे ही अपने-अपने स्थान को लौट गये। –जा० श०
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