पितृभक्त बालक
एक दस वर्ष की आयु का बालक अपने पिता के साथ युद्ध के मैदान में चला गया। जिस समय युद्ध चल रहा था उस समय दोनों बाप बेटे शत्रु पर गोले बरसा रहे थे। थोड़ी देर के बाद पिता ने पुत्र से कहा – बेटा! जब तक मैं तुम्हारे पास न आऊँ तब तक तुम यहीं खड़े रहना यहाँ से हिलना मत! बेटे ने कहा–बहुत अच्छा।
पिता पुत्र को इस प्रकार की आज्ञा प्रदान कर किसी कार्य से जहाज के दूसरे भाग की ओर चला जा रहा था कि शत्रु की ओर से एक बम पिता के सिर को चकना चूर करता हुआ डैक पर आकर फट गया। डैक पर गोले के फटते ही जहाज में आग लग गई और वह धांय धांय कर जलने लगा।
जहाज को जलता देखकर कप्तान ने लोगों के लिए डोंगियाँ भेजी और नाव खोल कर उन पर चढ़ने को कहा क्योंकि उस समय जहाज पर रहना खतरे से खाली नहीं था। उस लड़के से भी चलने को कहा गया परन्तु उसने अपने पिता की आज्ञा के बिना वहाँ से हटना स्वीकार नहीं किया।
अब अग्नि समस्त जहाज में फैल चुकी थी और उसकी लपटें आकाश से बातें कर रही थीं। अब वह लड़का बार-बार चिललाकर पूछ रहा था – पिताश्री! अब मेरे लिए क्या आज्ञा है? क्या मैं यहाँ से जा सकता हूँ। परन्तु उसे इस बात का पता नहीं था कि उसका पिता इस संसार से पहले ही विदा हो चुका है।
कुछ समय बाद अग्नि की लपटें जहाज के मस्तूल और बादवान को जलाती हुई धांय धांय कर लड़के के बालों में आ लगीं। अब लड़का एक बार और चिललाया – पिताश्री! क्या मैं यहीं खड़ा रहकर इसी अग्नि में भस्म हो जाऊँ।
उसी समय अग्नि के एक प्रचण्ड झोकें ने उस लड़के को अपने में समेट लिया और वह हमेशा के लिए अपने पिता के पास चला गया।