श्री धर्मराज व्रत कथा
भाषानुवाद
एक बार की बात है कि नैमिषारण्य में सहम्रों-शौनक आदि ऋषिगण परम श्रद्धा के साथ पुराणों के मर्मज्ञ सूतजी महाराज से पूछने लगे भगवन! हम आपके मुखारविंद से धर्मराजजी की कथा, उसका विधान तथा माहात्मय सुनना चाहते हैं, सो अब आप कृपया यही सुनाइए। सूतजी बोले-हे ऋषियों! आप लोगों ने मनुष्यों के कल्याण की कामना से मुझसे यह पूछा है-अतः आज में आप लोगों को धर्मराज जी की कथा हो सुनाता हूं। सारे तीर्थ तथा ब्रत करने से तथा नाना प्रकार का दान देने वाले मनुष्य भी जिनके उद्यापन को किए बिना सुख के भागी नहीं हो सकते। इस विषय में आप लोगों को इस लोक में सुख और आगे स्वर्ग सुख प्राप्ति के लिए धर्मराजजी को श्रेष्ठ कथा कहूंगा। आप लोग विश्वास रखकर श्रवण करें। पूर्वकाल की बात है कि राजा बभ्रुवाहन महोदयपुर में राज्य करता था। वह राजा बड़ा धर्मात्मा, दयालु तथा गो, ब्राह्मण और अतिथियों का पूजक था।
उसके राज्य में हरिदास नाम वाला महा दिद्वान, श्रेष्ठ ब्राह्मण था। उसकी पत्नी भी बहुत सुशील और धर्मवती थी, जिसका नाम गुणवती था। हरिदास विष्णु-सेवक बड़ा तपस्वी था, तदनुसार उसकी पली श्री भगवान को भक्ति और पतिग्रता थी। उसने प्राय: सभी प्रसिद्ध देवताओं के व्रत किए, परंतु धर्मराज की याने धर्मराज नाम से प्रभु की सेवा कभो नहीं को। तरह गणेश के, चंद्रमा के, हरतालिका आदि देवियों के, राम जन्म, जन्माष्टमी, शिवरात्रि आदि शिवजी के सभी ब्रत किया करती थी। बडी श्रद्धा से सदा एकादशी का ब्रत करती हुई यथा शक्ति दान भी देती रहती थी ओर अतिथि सेवा से कभी विमुख नहीं रही। इस प्रकार धर्मपरायण यह वृद्धावस्था में मृत्यु को प्राप्त हुई तो धर्माचरण के प्रभाव से यमदूत उसे आदरपूर्वक धर्ममाज के पुर को ले गए। दक्षिण दिशा में पृथ्वी से कुछ ऊपर अन्तरिक्ष में धर्माज का बड़ा भारी नगर है, जो कि पापी लोगों को भयदायक है।
धर्मराज का पुर एक हजार योजन का है, वह चौकोर है तथा उसके चार द्वार हैं। वह नाना प्रकार के रत्नों से शोभायमान है। उसमें कई मनुष्य जो पुण्य भोगने को गए हें, निवास कर रहे हैं। स्थान स्थान पर गीत सुनाई दे रहे हैं और बाजे बज रहे हैं। उस नगर के सात कोट हैं। उसके बीच में महासुन्दर धर्मराज जी का मंदिर है। वह रत्नों का बना हुआ है और अग्नि, बिजली तथा बाल सूर्य के समान चमक रहा है। उसके दरवाजों पेडियां स्फटिक मणि की हैं और हीरे की कणियों से आंगन चमक रहा है। उसके माध्यम से सुन्दर सिंहासन पर धर्मराज भगवान विराजमान हैं। उनके पास चित्रगुप्त जी का स्थान है, जो मृत प्राणियों के पाप पुण्य का लेखा भगवान धर्मराज को सुनाया करते हैं। यमराज के दूत गुणवती को वहां ले गए उनको देखकर वह भयभीत होकर कापने लगी और नीचे मुख किए खड़ी हो गई। चित्रगुप्त जी ने उसके पूर्वजन्म के लिए हुए पाप पुण्य का लेखा-जोखा पढ़कर सुनाया। धर्मराजजी उस गुणवती की हरिहर आदि सब देवों में तथा अपने पति में भक्ति देखकर प्रसन्न हुए, पर कुछ उदासी भी उनके मुख मण्डल पर झलकती हुई गुणवती को दिखाई दी। धर्ममजजी को उदास देखकर गुणवती ने निवेदन किया कि हे प्रभो, मेरी समझ में मैंने कोई दुष्कृत्य नहीं किया फिर भी आप उदास कों हैं, इसका कारण बताइए। धर्मराज जी कहा-हे देवी, तुमने व्रतादि से सब देवां को संतुष्ट किया है, परंतु मेरे नाम से तुमने कुछ भी दान पुण्य नहीं किया।
यह सुनकर गुणवती ने कहा-हे भगवान मेरा अपराध क्षमा करें। में आपकी उपासना नहीं जानती थी। अब आप ही कृपा करके उपाय बताइए, जिससे मनुष्य आपके प्रीतिपात्र बन सकें। यदि में आपके भक्ति मार्ग को आपके मुख से श्रवण कर वापस मृत्युलोक में जा सकूं तो आपको संतुष्ट करने का उपाय करूंगी। धर्मराज ने कहा-सूर्य भगवान के उत्तरायण में जाते ही जो महापुण्यवती मकर-संक्रांति आती है, उस दिन से मेरी पूजा शुरू करनी चाहिए। इस प्रकार साल भर मेरी कथा सुने ओर पूजा करे, इसमें कभी नागा नहीं करें। आपातकाल आने पर भी मेरे धर्म के इन दश अंगों का पालन करता रहे। धृति यथा लाभ संतोष। क्षमा यम नियम द्वारा मन को वश में करना, किसी की वस्तु को नहीं चुराना, मन से परस्त्रियों या पर पुरुषों से बचना याने मन की शुद्धि और शारीरिक शुद्धि, इंद्रियों के वश में न रहना, बुद्धि की पवित्रता याने मन में बुरे विचार न आने देना, शास्त्र विद्या का स्वाध्याय याने पाठ पूजा, कथा-श्रवण या ब्रत रखना ओर तदानुसार दान पुण्य करना, सत्य बोलना, सत्यता का ही व्यवहार करना और क्रोध न करना, ये दस धर्म के लक्षण हैं। और मेरी इस कथा को नियम से सदा सुनता रहे या पढ़ता रहे और यथा शक्ति दान पुण्य तथा परोपकार करता रहे। जब साल भर बाद फिर मकर-संक्रांति आवबे तब उद्यापन कर, दें।
सोने की या असमर्थ हो तो चांदी की मूर्ति बनवावे। विद्वान् ब्राह्मण के द्वारा पूजन हवन आदि करे, मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा कर पंचामृत से स्नान करा षोडषोपचार से उसकी पूजा करे। मेरे साथ में चित्रगुप्तजी की भी पूजा करे और सफेद काले तिलों के लड्डू का भोग लगावे। हमारी पूर्ण संतुष्टि के लिए ब्राह्मणों को भी जिमावे और बांस की छावड़ी में सवा पांच सेर धान्य जवार जो मुक्ता तुल्य मानी है, भरकर गुरु या ब्राह्मण को भेंट करें। स्वर्ग में चढ़ने के लिए सोने या चांदी की नमेनी भी दान देवे। सुन्दर बनी हुई शैय्या भी दान दे जिसपर मुलायम गद्दा, तकिया और रजाई हो। इसके सिवाय कम्बल, पादुकाएं, बांस की लकड़ी, लोटा, डोर, पांचों कपडे भी देना चाहिए। गोदान की सामर्थ्य हो तो श्वेत या लाल गाय मेरे लिए ओर काली गाय चित्रगुप्तजी के लिए दान देवें। ये दान की वस्तु सर्वसाधारण के लिए है। धनवान व्यक्ति और कुछ दें तो और भी अच्छा हे। गुणवती ने भगवान से अब यह प्रार्थना की-हे प्रभो! यदि ऐसी बात है तो मुझे यमदूतों से छुड़कर, फिर संसार में भेजिए, जिससे मैं आपकी कथा का प्रचार कर सकू।
ज्योंही उसकी प्रार्थना पर भगवान धर्मराजजी ने स्वीकृति दी उसी समय उसके मृत शरीर में पुनः प्राणों का संचार हो गया और उसके पुत्रादि कहने लगे कि बड़ी प्रसन्नता है कि हमारी माता जी मर कर भी जिंदा हो गई। इसके अनन्तर गुणवती ने अपने पति पुत्रादि को वे सब बातें कहीं जो धर्मराजजी ने मनुष्य के कल्याण के लिए कहीं थीं और खुद ने भी वह व्रत शुरू कर दिया। मकर संक्रांति से ही उसने प्रतिदिन धर्मगजजी की पूजा और यह कथा आरंभ कर दी ओर. स्वर्ग में जाने के लिए दान पुण्यादि कर्म भी आरंभ कर दिए। इस प्रकार वह गुणवत्ती सालभर में धर्मकथा सुनकर तथा धर्म के दस अंगों का पालन कर मृत्यु उपरांत जब स्वर्ग में पहुंची तो देवताओं ने उसका आदर किया और सदा स्वर्गीय भोगों को भोगती रही। सूतजी महाराज ने शोनकादि ऋषियों से कहा कि हे मुनियो जिस घर में स्त्री या पुरुष इस धर्मराज व्रत कथा को श्रद्धा से प्रतिदिन पढ़ते हैं। वे दुखों से मुक्त हो जाते हैं। इसमें कुछ भी संशय की बात नहीं है। मृत्यु काल में यमदूत जो लेने आते हैं वे भी उसको आदरपूर्वक ले जाते हैं ओर धर्मराजजी भी उसे सदा सुखी रखते हैं। यदि उन मनुष्यों के कुछ पाप बाकी हो तो शीघ्र ही पापनाश का उपाय बताकर शीघ्र ही पापमुक्त कराने में सहायक बन जाते हैं। गरूड़ पुराण आदि में लिखा है कि पापी लोगों को यमदूत महान कष्ट पहुंचाते हुए ले जाते हें, परंतु धर्ममजजी की कथा करने वाले यमलोक मार्ग में भी कष्ट नहीं पाते ओर वे प्राणी शीघ्र ही स्वर्ग तथा अपवर्ग (मोक्ष तक) को प्राप्त हो सकते हैं।
इति श्री सौरपुराणे बैवस्वत खंडे
धर्मराज कथा ( भाषा ) सम्पूर्ण