ईमानदार व्यापारी
महातपस्वी ब्राह्मण जाजलि ने दीर्घ काल तक श्रद्धा एवं नियमपूर्वक वानप्रस्था श्रम धर्म का पालन किया था। अब वे केवल वायु पीकर निश्चल खड़े हो गये थे और कठोर तपस्या कर रहे थे। उन्हें गतिहीन देखकर पक्षियों ने कोई वृक्ष समझ लिया और उनकी जटाओं में घोंसले बनाकर वहीं अंडे दे दिये।
वे दयालु महर्षि चुपचाप खड़े रहे। पक्षियों के अंडे बढ़े और फूटे, उनसे बच्चे निकले। वे बच्चे भी बड़े हुए, उड़ने लगे। जब पक्षियों के बच्चे उड़ने में पूरे समर्थ हो गये और एक बार उड़कर पूरे एक महीने तक अपने घोंसले में नहीं लौटे, तब जाजलि हिले। वे स्वयं अपनी तपस्या पर आश्चर्य करने लगे और अपने को सिद्ध समझने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई जाजलि! तुम गर्व मत करो। काशी में रहने वाले तुलाधार वैश्य के समान तुम धार्मिक नहीं हो।
आकाशवाणी सुनकर जाजलि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे उसी समय चल पड़े। काशी पहुँचकर उन्होंने देखा कि तुलाधार एक साधारण दूकानदार हैं और अपनी दूकान पर बैठकर ग्राहकों को तौल-तौल कर सौदा दे रहे हैं। परंतु जाजलि को उस समय और भी आश्चर्य हुआ जब तुलाधार ने बिना कुछ पूछे उन्हें उठकर प्रणाम किया, उनकी तपस्या का वर्णन करके उनके गर्व तथा आकाशवाणी की बात भी बता दी। जाजलि ने पूछा-“तुम तो एक सामान्य बनिये हो, तुम्हें इस प्रकार का ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ ?’
तुलाधार ने नम्रतापूर्वक कहा –‘ ब्राह्मण ! मैं अपने वर्णो चित धर्म का सावधानी से पालन करता हूँ। मैं न मद्य बेचता हूँ, न और कोई निन्दित पदार्थ बेचता हूँ। अपने ग्राहकों को मैं तौल में कभी ठगता नहीं। ग्राहक बूढ़ा हो या बच्चा, भाव जानता हो या न जानता हो, मैं उसे उचित भाव में उचित वस्तु ही देता हूँ। किसी पदार्थ में दूसरा कोई दूषित पदार्थ नहीं मिलाता। ग्राहक की कठिनाई का लाभ उठाकर मैं अनुचित लाभ भी उससे नहीं लेता हूँ। ग्रहाक की सेवा करना मेरा कर्तव्य है, यह जात मैं सदा स्मरण रखता हूँ। ग्राहकों के लाभ और उनके हित का व्यवहार ही मैं करता हूँ, यही मेरा धर्म है।’
तुलाधार ने आगे बताया – मैं राग-द्वेष और लोभ से दूर रहता हूँ। यथा शक्ति दान करता हूँ और अतिथियों की सेवा करता हूँ। हिंसा रहित कर्म ही मुझे प्रिय हैं। कामना का त्याग करके सब प्राणियों को समान दृष्टि से देखता हूँ और सबके हित की चेष्टा करता हूँ।’
जाजलि के पूछने पर महात्मा तुलाधार ने उनको विस्तार से धर्म का उपदेश किया। उन्हें समझाया कि हिंसा युक्त यज्ञ परिणाम में अनर्थकारी ही हैं। वैसे भी ऐसे यज्ञों में बहुत अधिक भूलों के होने की सम्भावना रहती है और थोड़ी-सी भी भूल विपरीत परिणाम देती है। प्राणियों को कष्ट देने वाला मनुष्य कभी सुख तथा परलोक में मंगल नहीं प्राप्त कर सकता। अहिंसा ही उत्तम धर्म है।
जो पक्षी जाजलि की जटाओं में उत्प्न्न हुए थे, वे बुलाने पर जाजलि के पास आ गये। उन्होंने भी तुलाधार के द्वारा बताये धर्म का ही अनुमोदन किया। तुलाधार के उपदेश से जाजलि का गर्व नष्ट हो गया।