होई अष्टमी
कार्तिक कृष्ण पक्ष की सप्तमी या अष्टमी के दिन यानी जिस वार की दीवाली हो, उसके एक सप्ताह पहले उसी वार को अहोई अष्टमी का ब्रत किया जाता है। पुत्र की दीर्घ आयु एवं सुख समृद्धि के लिए माताएं अहोई माता की पूजा करके यह ब्रत रखती हैं। पहले दीवार पर होई काढ़ते हैं। फिर दो दोगड़, मोली बांधकर, रोली से सतिया करके, जल भरकर होई के सामने रखते हैं। दोनों दोगड़ पर 5-5 पताशे या पूड़े व 5-5 सिघांडे रखते हैं। होई के दिनों सिरों पर आटे से नाले की माला लगाते हैं। बीच में आटे से ही एक रूपया भी चिपका देते हैं। दोनों दोगड़ को चांदी की माला (स्याहू व मानकों वाली) पहनाते हैं। दोगड के आगे गेहूं की ढेरी लगाते हैं। मोली बांधकर सतिया करके, अपने माथे पर भी टिक्की लगाते हैं। फिर होई के आगे बैठकर हाथ में गेहूं के सात दाने लेकर और कहानी सुनकर गेहूं से धोक मारते हैं, फिर विनायक बाबा की कहानी भी कहते हैं। तारे देखकर तारों को अर्ध्य देते हैं। 14 पूडे या गुलगुले या गुलाब जामुन, फल, रूपए रखकर बायना निकाते हैं। पानी गमले में देते हैं। फिर ब्रत खोलते हैं। बायना चावल चीनी को भी कर सकते हैं।
उद्यापन
जिस वर्ष घर में लड़का होए या लड़के का ब्याह होए तो उस वर्ष 14 बहू, 14 बेटे, 4 हाथ व 4 पैर बनाते हैं। दोगड़ दो ही होती हैं। माला में 2 मनके नए डलवा लेते हैं, उद्यापन के नाम के पूड़े या गुलाब जामुन सास की साड़ी ब्लाऊज, पैर पड़ाई के रुपये पल्ले में बांधकर बायना मिनश्ते हैं। इस वर्ष दो बायने निकलते हैं एक प्रतिवर्ष वाला और एक उद्यापन वाला विशेष बायना।