हल षष्ठी (हर छठ )
हल षष्ठी को श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम जी का जन्म हुआ था। यह पर्व भाद्रपद की कृष्ण पक्ष की षष्ठी को मनाते हैं। कुछ लोगों का मानना है कि माता सीता का जन्म इसी तिथि को हुआ था। हल तथा मूसल बलराम जी का मुख्य शस्त्र हे। इसलिये उन्हें हलधर भी कहा जाता ही इस पर्व का नाम उन्हीं के नाम पर रखा गया हे। हमारे देश के पूर्वी जिलों में इसे ललई छठ भी कहा जाता है। इम
दिन महुए की दातुन करने का विधान है। इस दिन ब्रत में हल द्वारा बोया हुआ फल तथा अन्न का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इस दिन गाय के दूध-दही का प्रयोग भी नहीं करना चाहिए। भैंस के दूध व दही का प्रयोग करना चाहिए।
कैसे मनायें?
, सुबह जल्दी स्नान करने के पश्चात् धरती माता को लीपकर एक छोटा सा तालाब बनाया जाता हे जिसमें झरबेरी, पलाश, गुर लर की एक-एक शाखा बांधकर बनाई गई हर छठ को इसमें गाड़ दते हें ओर इसकी पजा की जाती हे। पूजन मं सतनजा (गेहूँ, चना, धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, जो) आदि का भुना हुआ लावा चढाया जाता हे। हल्दी में रंगे हुए वस्त्र सुहाग की सामग्री भी चढ़ायी जाती है। पूजन आदि के पश्चात् निम्न मंत्र से प्राथना की जाती है
गंगा केदारे पुर कुशावते विल्वके नील पर्वते।
स््नात्वा कनखले देवि हर॑ गन्धवती पतिम्॥
ललिते सुभगे देवि सुखसोौभोग्यदायिनि।
अनन्त देहि सोभाग्यं महां तुभ्यं नमो नम:॥
हे देवी आपने गंगाकेदार, कुशावर्त, विल्वक, नील पर्वत और कनखल
तीर्थ में स्नान करके भगवान शंकर को पति के रूप में पाया है। सुख ओर सौभाग्य से परिपूर्ण करने वाली ललिता देवी आपको हम बार-बार नमस्कार करते हैं। आप मुझे अचल सुहागन होने का वरदान दीजिये।