कुष्ठी के रूप में भगवान्
पटना शहर में कोई ब्राह्मण रहते थे उनका नियम था-प्रतिदिन एक ब्राह्मण को भोजन कराके तब स्वयं भोजन करते। एक दिन इसी तरह वे किसी ब्राह्मण की खोज में थे कि एक व्यक्ति ने, जिसके हाथ-पैरों में गलित कुष्ठ हो रहा था, कहा कि ‘मैं ब्राह्मण हूँ।’ उसके ऐसा कहने पर उन्होंने उसको अपने घर चलने के लिये आग्रह किया और उनको लाकर उसी आसन पर आदरपूर्वक बैठाया, जिस पर वे प्रतिदिन ब्राह्मण-अतिथि को बैठाया करते थे
तथा उनके चरण को उसी परात में धोया। पर गलित कुष्ठ होनेके कारण उस परात का जल पीब तथा खून के रूप में बदल गया। उनका यह नियम था कि वे प्रतिदिन ब्राह्मण का चरणोदक पान किया करते थे। इसी नियम के अनुसार उन्हें आज भी पान करना था।
वे आँखें बंद करके चरणोदक को हाथ में लेकर भगवान्का स्मरण करते हुए पी गये। कहते हैं कि उसके पान करते ही वे समाधिस्थ हो गये। वे गृहस्थ लगातार सोलह दिनों तक इसी दशा में रहे। सतरहवें दिन उनका शरीर शान्त हो गया।
उस ब्राह्मणी ने लोगों को यह बताया-‘वे ब्राह्मण, जो भोजन करने आये थे, स्वयं भगवान् थे। मैं उनके दर्शन की अधिकारिणी नहीं थी, पर सदा पतिदेव के अतिथि-सेवा-कार्य में सहयोग देती थी, इसीलिये भगवान्ने मुझे भी दर्शन दे दिये।