पाँच सेर भजन!
लगभग तीस वर्ष पहले की बात है। एक गाँव में एक बूढ़ा रहता था। उसकी पत्नी भी बूढी हो गयी थी। लोका स्वभाव बड़ा सरल था। पढ़े-लिखे वे बिलकुल नहीं थे। उन्हें गिनती केवल बीस या तीस तक ही आती वे दोनों जब भजन करने बैठते, तब एक-एक सेर या चना तौलकर अपने-अपने सामने रख लेते। कृष्ण-कृष्ण कहते जाते तथा एक-एक दाना को अलग करते जाते। जब सम्पूर्ण दानों को अलग कर लेते, तब समझते कि एक सेर भजन हुआ। इसी प्रकार कभी दो सेर, कभी तीन सेर भजन करते। इस प्रकार उनके भजन की गिनती विचित्र ही थी।
एक बार जाड़े की रात थी। वे बड़े जोर से रोने लगे–अरे! मेरे कन्हैया को जाड़ा लग रहा है रे! फिर अपनी रजाई उठायी और जाकर गाँव के बाहर रख आये। लोगों ने तो समझा कि बूढ़ा पागल हो गया है। पर उन्हें तो सचमुच दर्शन हुआ था और भगवान् ने कहा था-दादा! मुझे जाड़ा लग रहा है। अपनी जान में उन्हें यह दीख रहा था कि यह बात कर कन्हैया गाँव के बाहर चला जा रहा है, उसे चराने जाना है वे उसके पीछे गये हैं और जाकर अपनी रजाई ओढ़ा दी है।
उन्हीं के सम्बन्ध में दूसरी घटना एक और है – उसी गाँव में एक बड़ा भयंकर भैंसा रहता था। उससे प्रायः सभी लोग डरते थे। जिधर जाता, बच्चे तो भाग ही जाते, जवानों के प्राण भी सूख जाते। एक दिन वे बूढ़े बाबा कहीं से आ रहे थे। भैंसा उस ओर ही लपका। लोगों ने समझा कि आज बूढे का प्राण गया। भाला लेकर लोग दौड़े अवश्य पर उससे पहले ही भैंसा बूढ़े के पास आ चुका था। इतने में दीखा-न जाने कैसे, भैंसा दूसरी ओर मुड़कर भागा। लोग चकित रह गये।
लोगों ने बूढ़े से पूछा। बूढ़े ने बताया-तुम लोगों को दीखा नहीं! अरे कृष्ण कहो! मेरा कन्हैया बड़ा खिलाड़ी है। वह आया, बोला-‘दादा! मैं आ गया हूँ और यह कहकर उसने भैंसे की पूँछ मरोड़ दी। फिर तो वह भैंसा भागा। लोगों ने तो यह स्पष्ट देखा था कि ठीक उसकी पूँछ ऐसी टेढ़ी हो गयी थी कि जैसे किसी ने सचमुच मरोड़ दी हो, पर उसके अतिरिक्त और कुछ भी किसी को नहीं दीखा। दोनों ही स्त्री-पुरुष निरन्तर भजन करते थे। कभी सेर, कभी दो सेर, कभी पाँच सेर तक।