साधु के लिये स्त्री दर्शन ही सबसे बडा पाप
समझकर कुछ ग्रास मुख में डालकर महाप्रभु उठ गये। अपने स्थान पर आकर उन्होंने आदेश दिया-आज से छोटा हरिदास मेरे यहाँ कभी नहीं आ पावेगा। उसने कभी यहाँ भूल से भी पैर रखा तो मैं बहुत असंतुष्ट होऊँगा। महाप्रभु के सेवक तो स्तब्ध रह गये। समाचार पाकर छोटे हरिदास बहुत दुखी हुए; किंतु महाप्रभु ने किसी प्रकार उन्हें अपने पास आने की अनुमति नहीं दी। सभी भक्तों ने प्रार्थना की श्रीपरमानन्दपुरीजी ने भी महाप्रभु से कहा…हरिदास को क्षमा कर दीजिये !
Female Philosophy is the biggest sin for a Monk |
परंतु महाप्रभु ने बहुत रुक्ष-भंमी बना ली थी। वे पुरी छोडकर अलालनाथ जाकर रहने को प्रस्तुत हो गये । छोटे हरिदास नै अन्न-जल त्याग दिया परंतु उनके अनशन का भी महाप्रभु पर कोई प्रभाव नहीं पड़स्ना। अन्त मे दुखी होकर छोटे हरिदास पुरी से पैदल चलकर प्रयाग आये और वहाँ उन्होंने गङ्गदृ-यमुना के संगम में देहत्याग कर दिया। यह समाचार जब महाप्रभु को मिला तब उन्होंने कहा-‘साधु होकर स्त्रियों से बातचीत करे उनको चरण छूने दे यह तो महापाप है। हरिदास ने अपने पाप के उपयुक्त ही प्रायश्चित्त किया है। महाप्रभु ने ही एक बार सार्वभौम भट्टाचार्य से कहा है…
निष्किञ्चनस्य भगवद्धजनोन्युखस्य
पारं परं जिगमिषोर्भवसागरस्य ।
संदर्शनं विषयिणापथ योषितां
च हा हन्ता हन्त ! विषभक्षणतोठप्यसाधु: ।।
संदर्शनं विषयिणापथ योषितां
च हा हन्ता हन्त ! विषभक्षणतोठप्यसाधु: ।।
श्री चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेकर जब श्रीजगन्नाथपुरी मे रहने लगे थे तब वहाँ महाप्रभु के अनेक भक्त भी बंगाल से आकर रहते थे। महाप्रभु के उन भक्तों में बहुत से अत्यन्त विरक्त भक्त थे। उन गृहत्यागी साधु भक्तों में ही एक थे छोटे हरिदासजी। ये सङ्गगेतज्ञ थे और अपने मधुर कीर्तन से महाप्रभु को प्रसन्न करते थे इसलिये इनको कीर्तनियां हरिदास भी लोग कहते थे ।
पुरी में महाप्रभु के अनेक गृहस्थ भक्त भी थे। श्रीजगन्नाथ जी के मन्दिर में हिसाब-किताब लिखने का काम करने वाले श्री शिखि माहिती, उनके छोटे भाई मुरारि और उनकी विधवा बहिन माधवी-ये तीनों ही परम भक्त थे। महाप्रभु के चरणों में इनका अनुराग था । इनमें भी शिखि माहिती और माधवी देवि को तो महाप्रभु भगबत्कृपा-प्राप्त भागबतों में गिनते थे ।
महाप्रभु को पुरी के भक्तगण कभी-कभी अपने यहाँ भिक्षा के लिये आमन्वित करते थे । एक दिन जब भगवानाचार्य के यहाँ महाप्रभु भिक्षा के लिये पधारे, तब भिक्षा में सुगन्धित सुन्दर चावल बने देखकर उन्होंने पूछा-‘ आपने ये उत्तम चावल कढाँ से मँगाये हैं ? ‘
भगवानाचार्य ने कहा-‘ प्रभो ! माधवी देबी के यहाँ खे ये आये हैँ ।’
महाप्रभु-माधबी के यहॉ चावल लेने कौन गया था ? ‘
भगवानाचार्यं-“छोटे हरिदास ।’
यह सुनकर महाप्रभु चुप हो गये । भिक्षा ग्रहण कानै का जैसे उनमें उत्साह रहा ही नहीं । भगवरुप्रसाद