महाराज उत्तानपाद के विरक्त होकर वन में तपस्या करनेके लिये चले जाने पर श्लुव सम्राट् हुए। उनके सौतेले भाई उत्तम वन में आखेट करने गये थे, भूल से वे यक्षों के प्रदेश में चले गये। वहाँ किसी यक्ष ने उन्हें मार डाला। पुत्र की मृत्यु का समाचार पाकर उत्तम की माता सुरुचि ने प्राण त्याग दिये। भाई के वध का समाचार पाकर ध्रुव को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने यक्षों की अलकापुरी पर चढ़ाई कर दी। अलकापुरी के बाहर ध्रुव का रथ पहुँचा और उन्होंने शह्डुनाद किया। बलवान् यक्ष इस चुनौती को कैसे सहन कर लेते। वे सहस्नों की संख्या में एक साथ निकले और ध्रुव पर टूट पड़े। भयंकर संग्राम प्रारम्भ हो गया। ध्रुवके हस्तलाघव और पटुत्व का वह अदभुत प्रदर्शन था।
ध्रुव ने पितामह कों प्रणाम किया और उनकी आज्ञा स्वीकार करके अस्त्र का उपसंहार कर लिया। ध्रुव का क्रोध शान्त हो गया है, यह जानकर धनाधीश कुबेर जी स्वयं वहाँ प्रकट हो गये और बोले – ध्रुव! चिन्ता मत करो। न तुमने यक्षों कों मारा है न यक्षों ने तुम्हारे भाई को मारा है। प्राणी की मृत्यु तो उसके प्रारब्ध के अनुसार काल की प्रेरणा से ही होती है। मृत्यु का निमित्त दूसरे को मानकर लोग अज्ञानवश दु:खी तथा रोषान्ध होते हैं। तुम सत्पात्र हो, तुमने भगवान् को प्रसन्न किया है; अत: मैं भी तुम्हें वरदान देना चाहता हूँ। तुम जो चाहो, माँग लो।’
ध्रुव को माँगना क्या था! क्या अलभ्य था, उन्हें जो कुबेर से माँगते ? लेकिन सच्चा हृदय प्रभु की भक्ति से कभी तृप्त नहीं होता। ध्रुव ने माँगा – आप मुझे आशीर्वाद दें कि श्रीहरि के चरणों में मेरा अनुराग हो।’
कुबेरजी ने ‘एवमस्तु” कहकर सम्मानपूर्वक ध्रुव को विदा किया। –सु० सिं०