कैयट की नि:स्पृहता
महाभाष्यतिलक के कर्ता संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान् कैयट जी नगर से दूर एक झोंपडी में निवास करते थे। उनके घर में सम्पति के नाम पर एक चटाई और एक कमण्डलु मात्र थे । उन्हें तो अपने संध्या, पूजन, अध्ययन और ग्रन्थ-लेखन से इतना भी अवकाश नहीं था कि पत्नी से पूछ सकैं कि घर में कुछ है भी या नहीं । बेचारी ब्राह्मणी वन से मूँज काट लाती, उनकी रस्सिया बनाकर बेचती और उससे जो कुछ मिलता उससे घर का काम चलाती। उसके पति देव ने उसे मना कर दिया था कि किसी का कुछ भी दान वह न ले । पति की सेवा, उनके और अपने भोजन की व्यवस्था तथा घर के सारे काम उसे करने थे और वह यह सब करके भी परम संतुष्ट थी ।
Disarmament of Keyt Ji |
काश्मीर के नरेश को लोगों ने यह समाचार दिया । काशी से आये हुए कुछ ब्राह्मणों ने कहा-एक महान् विद्वान् आपके राज्य में इतना कष्ट पाते हैं, आप कुछ तो ध्यान दें ।
नरेश स्वयं कैयट जी की कुटिया पर पधारे । उन्होंने हाथ जोडकर प्रार्थना की- भगवन! आप विद्वान है और जानते हैं कि जिस राजा के राज्य में विद्वान् ब्राह्मण कष्ट पाते हैं, वह पाप का भागी होता है, अत: मुझ पर कृपा करे ।
कैयटजी ने कमण्डलु उठाया और चटाई समेटकर बगल में दबायी । पत्नी से वे बोले-अपने रहने से महाराज को पाप लगता है तो चलो और कहीं चलें । तुम मेरी पुस्तकें उठा तो लो ।
नरेश चरणों पर गिर पड़े और हाथ जोडकर बोले मेरा अपराध क्षमा किया जाय। मैं तो यह चाहता था कि मुझे कुछ सेवा करने की आज्ञा प्रात हो ।
कैयटजी ने कमण्डलु-चटाई रख दिया । राजा से वे बोले-तुम सेवा करना चाहते हो तो यही सेवा करो कि फिर यहाँ मत आओ और न अपने किसी कर्मचारी को यहाँ भेजो । न मुझे कभी किसी चीज… धन, जमीन आदि का प्रलोभन ही दो । मेरे अध्ययन मेँ विघ्न न पड़े, यही मेरी सबसे बडी सेवा है ।