धीरता की पराकाष्ठा
जिन दिनों महाराज युधिष्ठिर के अश्वमेध-यज्ञ का उपक्रम चल रहा था, उन्हीं दिनों रत्नपुराधीश्वर महाराज मयूरध्वज का भी अश्वमेधीय अश्व छूटा था, इधर ‘ पाण्डवीय अश्व की रक्षा में श्रीकृष्ण-अर्जुन थे, उधर ताम्रध्वज। मणिपुर में दोनों की मुठभेड़ हो गयी। युद्ध में भगवदिच्छा से ही अर्जुन को पराजित करके ताम्रध्वज दोनों अश्वों को अपने पिता के पास ले गया। पर इससे महाराज मयूरध्वज के मन में हर्ष के स्थान पर घोर विषाद ही हुआ। कारण, वे श्रीकृष्ण के अद्वितीय भक्त थे।
अब प्रभु ने अपने-आप को प्रकट कर दिया। शहद, चक्र-गदा धारण किये, पीताम्बर पहने, सघन नीलवर्ण, दिव्य ज्योत्स्रामय श्रीश्यामसुन्दर ने ज्यों ही अपने अमृतमय कर-कमल से राजा के शरीर को स्पर्श किया, वह पहले की अपेक्षा भी अधिक सुन्दर, युवा तथा पुष्ट हो गया। वे सब प्रभु के चरणों पर गिरकर स्तुति करने लगे। प्रभु ने उन्हें वर मॉगने को कहा। राजा ने प्रभु के चरणों में निश्ल प्रेम की तथा भविष्य में ऐसी कठोर परीक्षा किसी की न ली जाए यह प्रार्थना की। अन्त में तीन दिनों तक उनका आतिथ्ये ग्रहण कर घोड़ा लेकर श्रीकृष्ण तथी अर्जुन वहाँ से आगे बढ़े।