न देने योग्य गौ के दान से दाता का उलटे अमङ्गलवा है इस विचार से सात्त्विक बुद्धि-सम्पन्न ऋषि कुमार अनिकेता अधीर हो उठे। उनके पिता वाजश्रवस- बाजश्रवा के पुत्र उद्दालक ने विश्वजित् नामक महान्या के अनुष्ठान में अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी, किंतु ऋषि-ऋत्विज् और सदस्यों की दक्षिणा में अच्छी-बुरी सभी गौएँ दी जा रही थीं।
पिता के मङ्गल की रक्षा के लिये अपने अनिष्ट की आशङ्का होते हुए भी उन्होंने विनय पूर्वक कहा-पिताजी! मैं भी
आपका धन हूँ, मुझे किसे दे रहे हैं—’तत कस्मै मां दास्यसीति। उद्दालक ने कोई उत्तर नहीं दिया। नचिकेता ने पुनः वही प्रश्न किया, पर उद्दालक टाल गये। ‘पिताजी! मुझे किसे दे रहे हैं? तीसरी बार पूछने पर उद्दालक को क्रोध आ गया। चिढ़कर उन्होंने कहा-तुम्हें देता हूँ मृत्यु को-मृत्यवे त्वां ददामीति। नचिकेता विचलित नहीं हुए। परिणाम के लिये वे सस ही प्रस्तुत थे।
यह अग्नि अनन्त स्वर्ग-लोक की प्राप्ति का साधन है’-यमराज नचिकेता को अल्पायु, तीक्ष्णबुद्धि तथा वास्तविक जिज्ञासु के रूप में पाकर प्रसन्न थे। उन्होंने कहा-यही विराट्रू पसे जगत से प्रतिष्ठा का मूल कारण है। इसे आप विद्वानों की बुद्धिरूप गुहा में स्थित समझिये। उस अग्नि के लिये जैसी और जितनी ईंटें चाहिये, वे जिस प्रकार रखी जानी चाहिये तथा यज्ञ स्थली- निर्माण के लिये आवश्यक सामग्रियाँ और अग्निचयन करने की विधि बतलाते हुए अत्यन्त संतुष्ट होकर यम ने द्वितीय वर के रूप में कहा–’मैंने जिस अग्नि की बात आपसे कही, वह आपके ही नाम से प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नों वाली माला को भी ग्रहण कीजिये।
उन्होंने नचिकेता को उस ज्ञान की दुरूहता बतलायी, पर उनको वे अपने निश्चय से नहीं डिगा सके। यम ने भुवन-
मोहन अस्त्र का उपयोग किया-सुर-दुर्लभ सुन्दरियाँ और दीर्घकालस्थायिनी भोग-सामग्रियों का प्रलोभन दिया, पर ऋषिकुमार अपने तत्त्व-सम्बन्धी गूढ वर से विचलित नहीं हो सके। आप बड़े भाग्यवान् हैं। यम ने नचिकेता के वैराग्य की प्रशंसा की और वित्तमयी संसार गति की निन्दा करते हए बतलाया कि विवेक-वैराग्य-सम्पन्न पुरुष ही ब्रह्मज्ञान-प्राप्ति के अधिकारी हैं। श्रेय-प्रेय और विद्या- अविद्या के विपरीत स्वरूप का यम ने पूरा वर्णन करते हए कहा-आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्या के अधिकारी हैं।