यम के द्वार पर
(लेखक-पं० श्रीशिवनाथजी दुबे, साहित्यरत्न)
न देने योग्य गौ के दान से दाता का उलटे अमङ्गलवा है इस विचार से सात्त्विक बुद्धि-सम्पन्न ऋषि कुमार अनिकेता अधीर हो उठे। उनके पिता वाजश्रवस- बाजश्रवा के पुत्र उद्दालक ने विश्वजित् नामक महान्या के अनुष्ठान में अपनी सारी सम्पत्ति दान कर दी, किंतु ऋषि-ऋत्विज् और सदस्यों की दक्षिणा में अच्छी-बुरी सभी गौएँ दी जा रही थीं।
पिता के मङ्गल की रक्षा के लिये अपने अनिष्ट की आशङ्का होते हुए भी उन्होंने विनय पूर्वक कहा-पिताजी! मैं भी
आपका धन हूँ, मुझे किसे दे रहे हैं—’तत कस्मै मां दास्यसीति। उद्दालक ने कोई उत्तर नहीं दिया। नचिकेता ने पुनः वही प्रश्न किया, पर उद्दालक टाल गये। ‘पिताजी! मुझे किसे दे रहे हैं? तीसरी बार पूछने पर उद्दालक को क्रोध आ गया। चिढ़कर उन्होंने कहा-तुम्हें देता हूँ मृत्यु को-मृत्यवे त्वां ददामीति। नचिकेता विचलित नहीं हुए। परिणाम के लिये वे सस ही प्रस्तुत थे।
उन्होंने हाथ जोडकर पिता से कहा-‘पिताजी! शरीर नश्वर है, पर सदाचरण सर्वोपरि है। आप अपने वचन की रक्षा के लिये यम-सदन जानेकी मुझे आज्ञा दें। का – ऋषि सहम गये, पर पुत्र की सत्यपरायणता देखकर उसे यमपूरी जाने की आज्ञा उन्होंने दे दी। नचिकेता ने पिता के चरणों में सभक्ति प्रणाम किया और वे यमराज की पुरी के लिये प्रस्थित हो गये।
यमराज काँप उठे। अतिथि ब्राह्मण का सत्कार न करने के कुपरिणाम से वे पूर्णतया परिचित थे और ये तो अग्नितुल्य तेजस्वी ऋषिकुमार थे, जो उनकी अनुपस्थिति में। उनके द्वारपर बिना अन्न-जल ग्रहण किये तीन रात बिता चुके थे। यम जल पूरित स्वर्ण कलश अपने ही हाथों में लिये दौड़े। उन्होंने नचिकेता को सम्मानपूर्वक पाद्यार्घ्य देकर अत्यन्त विनय से कहा-आदरणीय ब्राह्मणकुमार! पूज्य अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वार पर तीन रात्रियाँ उपवास में बिता दीं, यह मेरा अपराध है। आप प्रत्येक रात्रि के लिये एक-एक वर मुझसे माँग लें।
सदा सत्कथा स ‘मृत्यो! मेरे पिता मेरे प्रति शान्त-संकल्प, प्रसन्नचित्त और क्रोधरहित हो जायँ और जब मैं आपके यहाँ से लौटकर घर जाऊँ, तब वे मुझे पहचानकर प्रेमपूर्वक बातचीत करें। पितृभक्त बालक ने प्रथम वर माँगा। ‘तथास्तु’ यमराज ने कहा। ‘मृत्यो! स्वर्ग के साधनभूत अग्नि को आप भली- भाँति जानते हैं। उसे ही जानकर लोग स्वर्ग में अमृतत्व- देवत्व को प्राप्त होते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ। यही मेरी द्वितीय वर-याचना है।
यह अग्नि अनन्त स्वर्ग-लोक की प्राप्ति का साधन है’-यमराज नचिकेता को अल्पायु, तीक्ष्णबुद्धि तथा वास्तविक जिज्ञासु के रूप में पाकर प्रसन्न थे। उन्होंने कहा-यही विराट्रू पसे जगत से प्रतिष्ठा का मूल कारण है। इसे आप विद्वानों की बुद्धिरूप गुहा में स्थित समझिये। उस अग्नि के लिये जैसी और जितनी ईंटें चाहिये, वे जिस प्रकार रखी जानी चाहिये तथा यज्ञ स्थली- निर्माण के लिये आवश्यक सामग्रियाँ और अग्निचयन करने की विधि बतलाते हुए अत्यन्त संतुष्ट होकर यम ने द्वितीय वर के रूप में कहा–’मैंने जिस अग्नि की बात आपसे कही, वह आपके ही नाम से प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नों वाली माला को भी ग्रहण कीजिये।
तृतीयं वरं नचिकेता वृणीष्व। ‘हे नचिकेता, अब तीसरा वर माँगिये। अग्नि को स्वर्ग का साधन अच्छी प्रकार बतलाकर यम ने कहा। – आप मृत्यु के देवता हैं श्रद्धा-समन्वित नचिकेता ने कहा- आत्मा का प्रत्यक्ष या अनुमान से निर्णय नहीं हो पाता। अत: मैं आपसे वही आत्म-तत्त्व जानना चाहता हूँ। कृपा पूर्वक बतला दीजिये। यम झिझके। आत्म-विद्या साधारण विद्या नहीं।
उन्होंने नचिकेता को उस ज्ञान की दुरूहता बतलायी, पर उनको वे अपने निश्चय से नहीं डिगा सके। यम ने भुवन-
मोहन अस्त्र का उपयोग किया-सुर-दुर्लभ सुन्दरियाँ और दीर्घकालस्थायिनी भोग-सामग्रियों का प्रलोभन दिया, पर ऋषिकुमार अपने तत्त्व-सम्बन्धी गूढ वर से विचलित नहीं हो सके। आप बड़े भाग्यवान् हैं। यम ने नचिकेता के वैराग्य की प्रशंसा की और वित्तमयी संसार गति की निन्दा करते हए बतलाया कि विवेक-वैराग्य-सम्पन्न पुरुष ही ब्रह्मज्ञान-प्राप्ति के अधिकारी हैं। श्रेय-प्रेय और विद्या- अविद्या के विपरीत स्वरूप का यम ने पूरा वर्णन करते हए कहा-आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्या के अधिकारी हैं।
हे भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो सब प्रकार के व्यावहारिक विषयों से अतीत जिस पर ब्रह्म को आप देखते हैं, मुझे अवश्य बतलाने की कृपा कीजिये। आत्मा चेतन है। वह न जन्मता है, न मरता है। न यह किसी से उत्पन्न हुआ है और न कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है। नचिकेता की जिज्ञासा देखकर यम अत्यन्त प्रसन्न हो गये थे। उन्होंने आत्मा के स्वरूप को विस्तारपूर्वक समझाया-वह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, शरीर के नाश होने पर भी बना रहता है। वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म और महान से भी महान् है। वह समस्त अनित्य शरीरों में रहते हुए भी शरीर रहित है, समस्त अस्थिर पदार्थों में व्याप्त होते हुए भी सदा स्थिर है। वह कण-कण में व्याप्त है। सारा सृष्टिक्रम उसी के आदेश पर चलता है।
अग्नि उसी के भय से जलता है, सूर्य उसी के भय से तपता है तथा इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु उसी के भय से दौड़ते हैं। जो पुरुष काल के गाल में जाने से पूर्व उसे जान लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। शोकादि क्लेशों को पारकर परमानन्द को प्राप्त कर लेते हैं। यम ने कहा, वह न तो वेद के प्रवचन से प्राप्त होता है, न विशाल बुद्धि से मिलता है और न केवल जन्मभर शास्त्रों के श्रवण से ही मिलता है। नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। वह उन्हीं को प्राप्त होता है, जिनकी वासनाएँ शान्त हो चुकी हैं, कामनाएँ मिट गयी हैं और जिनके पवित्र अन्त:करण को मलिनता की छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती तथा जो उसे पाने के लिये अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं। आत्म-ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद उद्दालक-पुत्र कुमार नचिकेता लौटे तो उन्होंने देखा कि वृद्ध तपस्वियों का समुदाय भी उनके स्वागतार्थ खड़ा है।