अनुचित वचन न मानिए जद गुराइसुः गाढ़ि।
अनुचित वचन न मानिए जद गुराइसुः गाढ़ि।
है रहीम रघुनाथ तें,’ सुजस भरत को* बाढ़ि।। 7।।
अर्थ–कितना भी बड़ा और रहस्यमय क्यों न हो कभी भी अनुचित वचन नहीं मानना चाहिए। कवि रहीम कहते हैं कि श्रीरामचंद्रजी के वचनों से ही भरत को सुयश की प्राप्ति हुई। े
भाव–कवि रहीम का कहने का आशय यही है कि यह जरूरी नहीं है कि बड़ा व्यक्ति सदैव उचित या सत्य बात ही कहे । कभी-कभी वह अनुचित वचन भी कह सकता है या किसी भ्रमवश झूठी बात भी कह सकता है, किंतु हमारे लिए यही उचित है कि हम अपने विवेक से उचित-अनुचित का पता लगाकर ही उसे स्वीकार करें।
जिस प्रकार भरत को राम के वचनों का पालन करने से यश मिला उसी प्रकार श्रेष्ठ व्यक्ति के उचित कथन को ही स्वीकार करना चाहिए न कि उसकी बात इसलिए मान लें कि वह हमसे बड़ा है। इस प्रकार न केवल हम अपने साथ अन्याय करेंगे, बल्कि अनुचित बात का समर्थन करने के दोषी कहलाएंगे।