Home Hindu Fastivals दक्षिणा क्‍यों देते हैं? – हिन्दुओ के व्रत और त्योहार

दक्षिणा क्‍यों देते हैं? – हिन्दुओ के व्रत और त्योहार

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दक्षिणा क्‍यों देते हैं? 

दक्षिणावतामिदमानि चित्रा दक्षिणावतां दिवि सूर्यास:। दक्षिणावन्तो अमृतं भजंते, दक्षिणावंत: प्रतिरंत आयु:॥ दक्षिणा प्रदान करने वालों के ही आकाश में तारागण के रूप में दिव्य चमकाले चित्र हैं, दक्षिणा देने वाले ही भूलोक में सूर्य की भांति चमकते हें, दक्षिणा देने वालों को अमरत्व प्राप्त होता हे और दक्षिणा देने वाले ही दीर्घायु होकर जीवित रहते हैं। शास्त्रों में दक्षिणारहित यज्ञ को निष्फल बताया गया हे। जिस वेदवेत्ता ने हवन आदि कृत्य मंत्रोपचार करवाए हों, उसे खाली हाथ लोटा देना भला कोन उचित कहेगा? इस संस्कार के द्वारा वर और वधू दाम्पत्य सूत्र में बंधते हैं और एक दूसरे के जीवन साथी बनकर भविष्य में परिवार चलाते हैं। विवाह आठ प्रकार के होते हें जैसे-ब्राह्म , देव, आर्ण, प्रजापत्य, असुर, गंध ह , राक्षम और पिशाच। उसमें प्रथम चार श्रेष्ठ ओर अंतिम चार निकृष्ट माने जाते । हिंदू संस्कृति में विवाह कभी न टूटने वाला एक परम पवित्र धार्मिक संस्कार हे, यज्ञ है। विवाह में दो प्राण (वर-वधू) अपने अलग अस्तित्वों को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं और एक दूसरे को अपनी योग्यताओं एवं भावनाओं का लाभ पहुंचाते हुए गाडी में लगे दो पाहियों की तरह प्रगति पथ पर बढ़ते हैं। विवाह दो आत्माओं का पवित्र बंधन है, जिसका उद्देश्य मात्र इंद्रिया सुखभोग नहीं, बल्कि पुत्रोत्पादन, संतानोत्पादन कर एक परिवार की नींव डालना हे। सृष्टि के आरंभ में विवाह जैसी कोई प्रथा नहीं थी। कोई भी पुरुष किसी भी स्त्री से योन सम्बन्ध बनाकर संतान उत्पन्न कर सकता था। पिता का ज्ञान न होने से मातृपक्ष की ही प्रधानता थी तथा संतान का परिचय माता से ही दिया जाता था। वह व्यवस्था वेदिककाल तक चलती रही। इस व्यवस्था को परवती (बाद के)ऋषियों ने चुनोती दी तथा इसे पाशविक संबंध मानते हुए नये वैवाहिक नियम बनाए। ऋषि श्वेतकेतु का एक संदर्भ वैदिक साहित्य में आया है कि उन्होंने मर्यादा खो रक्षा के लिए विवाह प्रणाली की स्थापना की ओर तभी स॑ कुटुंब-व्यवस्था का श्रीगणेश हुआ। हिंदू विवाह भोगलिप्सा का साधन नहीं, एक धार्मिक संस्कार है। संस्कार से अन्तःशुद्धि होती है ओर शुद्ध अन्तकरण में तत्वज्ञान व भगवत्प्रेम उत्पन्न होता है, जो जीवन का चरम एवं परम पुरुषार्थ है। मनुष्य के ऊपर देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण-ये तीन ऋण होते हैं। यज्ञ-योगादि से देवऋण, स्वाध्याय से ऋषिगण तथा विवाह करके पितरों के श्राद्ध तर्पण के योग्य धार्मिक एवं सदाचारी पुत्र उत्पन्न करके पितृऋण का परिशोधन होता है। इस प्रकार पितरों की सेवा तथा सद्धर्म का पालन की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए संतान उत्पन्न करना विवाह का परम उद्देश्य है। यही कारण हे कि हिन्दूधर्म में विवाह की एक पवित्र संस्कार के रूप में मान्यता दी गयी है।
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