चाटुकारिता अनर्थकारिणी है.
बढ़ी मीठी लगती है चाटकारिता और एक बार जब चाटुकारों की मिथ्या प्रशंसा सुनने का अभ्यास हो जाता है, तब उनके जाल से निकलना कठिन होता है। चाटुकार लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये बड़े बड़ों को मूर्ख बनाये रहते हैं और आश्चर्य यही है कि अच्छे लोग भी उनकी झूठी प्रशंसा को सत्य मानते रहते हैं।
चरणाद्रि (चुनार) उन दिनों करूष देश के नाम से विख्यात था। वहाँ का राजा था पौण्ड्रक। उसके चाटुकार सभासद् कहते थे -‘आप तो अवतार हैं। आप ही वासुदेव हैं। भूभार दूर करने के लिये आप साक्षात् नारायण ने अवतार धारण किया है। आपकी सेवा करके हम धन्य हो गये। जो आपका दर्शन कर पाते हैं, वे भी धन्य हैं।’
पौण्ड्रक इन चाटुकारों की मिथ्या प्रशंसा में ऐसा भूला कि उसने अपने को वासुदेव कहना प्रारम्भ किया। वह दो कृत्रिम हाथ लगाकर चतुर्भुज बना रहने लगा और शंख, चक्र, गदा तथा कमल उन हाथों में लिये ही रहने का उसने अभ्यास कर लिया। अपने रथ की पताका पर उसने गरुड का चिह्न बनवाया। बात यहीं तक रहती, तब भी कोई हानि नहीं थी किंतु उसने तो गर्व में आकर दूत भेजा द्वारका।
श्रीकृष्णचन्द्र के पास यह संदेश भेजा उसने-‘कृष्ण! मैं ही वासुदेव हूँ। भूभार दूर करने के लिये मैंने ही अवतार धारण किया है। यह बहुत अनुचित बात है कि तुम भी अपने को वासुदेव कहते हो और मेरे चिह्न धारण करते हो। तुम्हारी यह धृष्टता सहन करने योग्य नहीं है। तुम वासुदेव कहलाना बंद करो और मेरे चिह छोड़कर मेरी शरण आ जाओ। यदि तुम्हें यह स्वीकार न हो तो मुझसे युद्ध करो।’
द्वारका की राजसभा में दूत ने यह संदेश सुनाया तो यादवगण देर तक हँसते रहे पौण्ड्रक की मूर्खता पर। श्रीकृष्णचन्द्र ने दूत से कहा -‘जाकर कह दो पौण्ड्रक से कि युद्ध-भूमि में मैं उसपर अपने चिह्न छोड़ूंगा।’ पौण्ड्रक को गर्व था अपनी एक अक्षौहिणी सेना का। अकेले श्रीकृष्णचन्द्र रथ में बैठकर करूष पहुँचे तो वह पूरी सेना लेकर उनसे युद्ध करने आया। उसके साथ उसके मित्र काशी नरेश भी अपनी एक अक्षौहिणी सेना के साथ आये थे। पौण्ड्रक ने दो कृत्रिम भुजाएँ तो बना ही रखी थीं, शंख-चक्र-गदा-पद्म के साथ नकली कौस्तुभ भी धारण किया था उसने।
नट के समान बनाया उसका कृत्रिम वेश देखकर श्रीकृष्णचन्द्र हँस पड़े। पौण्ड्रक और काशिराज की दो अक्षौहिणी सेना तो धनुष से छूटे बाणों, सुदर्शन चक्र की ज्वाला और कौमोद की गदा के प्रहार में दो घंटे भी दिखायी नहीं पड़ी। वह जब समाप्त हो गयी, तब द्वारकाधीश ने पौण्ड्रक से कहा -“तुमने जिन अस्त्रों के त्यागने की बात दूत से कहलायी थी, उन्हें छोड़ रहा हूँ। अब सम्भालो! गदा के एक ही प्रहार ने पौण्ड्रक के रथ को चकनाचूर कर दिया। वह रथ से कूदकर पृथ्वी पर खड़ा हुआ ही था कि चक्र ने उसका मस्तक उड़ा दिया। उस चाटुकारिता प्रिय मूर्ख एवं पाखण्डी का साथ देने के कारण काशि राज भी युद्ध में मारे गये।