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Story of the Buddha Story of Renunciation / गौतम का गृह-त्याग

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जन्म, रोग और मृत्यु जीवन के सत्य हैं। राजकुमार सिद्धार्थ ने उन सत्यों का जब साक्षात्कार किया और उसके मर्म को समझा तो उसी दिन गृहस्थ जीवन का परित्याग कर वे संयास-मार्ग को उन्मुख हो गये।

वह दिन आषाढ़ पूर्णिमा का था। मध्य-रात्रि बेला थी। भोग-विलास के माहौल में उनके निकट ही एक सुंदरी बड़े ही भोंडे तरीके से सोई पड़ी थी। कुरुप सांसारिकता से वितृष्ण उन्होंने तुरंत ही अपने सारथी धन्न को बुलाया और अपने प्रिय घोड़े कंठक को तैयार रखने का आदेश दिया। फिर वे अपने शयन-कक्ष में गये जहाँ यशोधरा नवजात राहुल के साथ सो रही थी। उसी दिन राहुल का जन्म हुआ था। अपनी पत्नी और पुत्र पर एक अंतिम दृष्टि डाल, उन्हें सोते छोड़, कंठक पर सवार वे नगर की ओर निकल पड़े। रोकने के प्रयास में धन्न भी उनके घोड़े की पूँछ से लटक गया।

कहा जाता है कि देवों ने कंठक के पैरों के टाप और हिनहिनाहट के शोर को दबा दिया और उनके निष्क्रमण के लिए नगर-द्वार खोल दिये थे। कपिलवत्थु नगरी के बाहर आकर वे एक क्षण को रुके और अपने जन्म और निवास-स्थान पर एक भरपूर दृष्टि डाल आगे बढ़ गये। रात भर घुड़सवारी करने के बाद अनोगा नदी तक पहुँचे जो कपिलवस्तु से तीस भोजन दूर था। कंठक ने आठ उसम चौड़ी नदी को एक ही छलांग में पार कर लिया। नदी की दूसरी तरफ उन्होंने अपने तमाम आभूषण उतार धन्न को दे अपने बाल और दाढ़ी अपनी तलवार से काट हवा में उछाल दिये। सक्क (शक्र; इन्द्र) ने उन्हें आसमान में ही लपक तावतिंस लोक के चुल्लमणि चैत्य में प्रतिस्थापित करा दिया। ब्रह्म घटिकार ने तब स्वर्ग से उतर गौतम को कासाय चीवर तथा एक संयासी योग्य सात अन्य आवश्यक वस्तुएं प्रदान किये। संयासी का रुप धारण कर गौतम ने कंठक और धन्न को वापिस लौट जाने की आज्ञा दी। किन्तु अपने स्वामी के वियोग को सहन नहीं करते हुए कंठक ने वहीं अपने प्राण त्याग दिये।

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