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पाँच पाण्डवों एवं द्रोपदी की कथा – हिन्दुओ के व्रत और त्योहार

पाँच पाण्डवों एवं द्रोपदी की कथा 

द्रोपदी को साथ लेकर पांचों पांडव कोरा कलसा लिये चले, लाल पुष्प, लिये, सूर्य नारायण भगवान तेज प्रकाश करो, बावला भाई थू के माँगा, निपुत्री पुत्र माँगे, निर्धनी धन मांगे, ना महाराज तेज प्रकाश करो, पहले में विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र निकला, दूसरे में शंकर भगवान का त्रिशूल निकला, तीसरे में हनुमानजी की गदा निकली, चौथे में सोमनाथ जी की बरछी निकली, चारों शस्त्रों का नाम लें। सुमति आ जायेगी। कुमति मिट जायेगी, पांचवे में तरी दी तुलसी का पत्ता छोड़ देगी, मनचाहा भोजन हो जायेगा। अट्ठासी हजार ऋषियों को जिमावेगी, आये हुए अतिथियों को जिमायेगी। पांचों पतियों को जिमायेगी, पीछे आप जीम के तरी मॉजकर (५; देगी। अच्छी बात भगवान, मैं तो ये ही नियत अपनाऊंँगी। द्रोपदी रानी सुधिया उठती, नहाती-धोती पाठ करती, पूजा करती, चूल्हे पर तरी चढ़ा अट्ठासी हजार ऋषियों को जिमाती। आये अतिथियों को जिमाती। 
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पाँचों पतियों को जिमाती। पीछे आप जीम कर तरी माँज कर धर देती, दुर्योधन को बेरा पट गया। जलू बलू करे काहे का श्राप दूँ, इतने में दुर्वाता ऋषि आये। आओ महाराज, चार मास का चोमासा करो। मीठा भोजन घाला, चौखी सेवा की, दुर्योधन में तेरे पर बहुत प्रसन्न हूँ, माँग ले भाई के माँगे।  
ना महाराज थारी दया से के ठाठ-बाट लाग रहे हैं। गरबाया भाई बहुत गरबाया कुछ तो माँग, मेरे भाई की स्त्री वन में रहवे अट्ठासी ऋषियों को जिमाये। आये अतिथियों का जिमाये, पांचों पतियों को जिमाये। पीछे आप जीमें उसके पुण्य का छेद करके आओ, जा थापी हत्यारे तेरे घर का अन्न खा लिया। जाना पड़सी, द्रोपदी रानी सुधिया उठी, नहाई धोई पाठ किया। पूजा की, चूल्हे पर तरी चढ़ा दी मनचाहा भोजन हो गया। अट्ठासी हजार ऋषियों को जिमाया अतिथियों को जिमाया, पाँचों पतियों को जिमाया। बाद में स्वयं ने भोजन का सेवन करके तरी माँज कर रख दी, इतने में दुर्वासा ऋषि ने आकर नाद बजा दी, पाँचों पाण्डव खड़े सूख गये। द्रोपदी तू जीम ली क्या, हाँ महाराज मैं तो जीम ली। अपने आँगन में क्रोधी ब्राह्मण दुर्वाला ऋषि, अट्ठासी हजार ऋषियों को लेकर आ गया, अपने कुल का नाश करेगा, हमको श्राप देगा। अपने कुल का क्‍यों नाश करेगा आपको श्राप क्‍यों देगा? श्री कृष्ण भगवान सहायता करेंगे। 
उनसे कहो “गंगा स्नान करके आयें। आप रसोई तैयार करें, पांचों पाण्डव छठी द्रोपदी ने भगवान श्री कृष्ण का नाम सहदय से जपना शुरू किया। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण द्वारका के बासी बैकुण्ठ के बासी! हमारी लाज थारे हाथ, रुक्मणी श्री कृष्ण को खाना खिला रही थी, खाना खाते-खाते भगवान खडे हो गये। रुक्मणी हाथ जोड़कर बोली-कि हे प्रभु, मेरी सेवा में कोई भूल हो गई हो तो क्षमा करें। श्री कृष्ण बोले-नहीं रानी! तुम्हारी सेवा में कोई कमी नहीं है। मैं तो केवल अपने भक्तों के वश में हूँ। मेरे भक्त मुझे जहां याद करते हैं मैं वहां पहुंच जाता हूं | बैकुण्ठ में याद करते हैं तो बेकुण्ठ में काशी में याद करते है तो काशी में, घर में याद करते हैं तो घर में उन्हें साक्षात दर्शन करता हूँ। वे द्रोपदी के पास आकर बोले-अरे द्रोपदी क्‍यों याद किया? आज तो में भूखा हूँ। भूखा, भूखे कृष्ण मेरे यहां क्या लेने आये हो मेरे यहां तो अन्न का एक दाना भी नहीं है! 
श्री कृष्ण बोले-अरी पगली मेरा नाम ले सब भण्डार भर जायेंगे। द्रोपदी बोली-दुर्वासा ऋषि अट्ठासी हजार ऋषियों को लेकर मेरे आंगन में आ गये हैं, और अपनी तरी मांग रहे हैं, कि ला मेरी तरी कहां हे? कह रहे हैं कि मेरा आदर-सत्कार कर, तरी तो मैंने माँज कर रख दी! कृष्ण द्रोपदी से बोले-तू ला तो सही। द्रोपदी रानी! तरी लेकर आई तो भगवान ने उसमें एक तुलसी का पत्ता चिपका हुआ देखा, भगवान ने बायें हाथ से निकाल कर दायें हाथ में रखकर अपने मुख में रख लिया। दुर्वाला ऋषि और अटठासी हजार ऋषियों का पेट भर गया। कोई उल्टी ले कोई डकार ले। कोई आगे भागे, कोई पीछे भागे। इतने में युधिष्ठिर भगवान बुलाने गये। चलो महाराज रसोई तैयार है, भोजन ग्रहण कीजिये। दुर्वासा ऋषि. बोले-हमने तो भोजन कर लिया। वे बोले तुम्हारी लाज तो त्रिलोकी ने रख ली, जैसे द्रोपदी सती और पांचों पांडवों की लाज रखी वैसे सबकी लाज रखना कहते की भी सुनते की भी सभी की लाज रखना। 
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