सेवा ब्रह्मनिष्ठ
एक बार महाराज जनक ने एक बहुत बडा यज्ञ किया। उसमें उन्होंने एक बार एक सहस्त्र सोने से गढ़े हुए सींगों वाली बढ़िया दुधारी गौओं की ओर सकेत करके कहा-“पूज्य ब्रह्मणो। आपमें से जो ब्रह्मनिष्ठ हो, वे इन गाओ को ले जायें ।! इस पर जब किसी का साहस न हुआ, तब याज्ञवल्कय ने अपने ब्रह्मचारी से कहा – सोमश्रवा ! तू इन्हे ले जा।! अब तो सब ब्राह्मण बिगड़ पड़े । उन्होंने कहा कि “क्या हम सब में तुम्ही उत्कृष्ट ब्रह्मनिष्ठ हो ? याज्ञवल्कय ने कहा कि ब्रह्मनिष्ठ को तो हम नमस्कार करते है; हमे तो गायें चाहिये, इसलिये हमने इन्हें ले लिया है ?
अब विवाद छिड़ गया । ब्रह्मनिष्ठभिमानी अश्वल, ऋतभ, आर्तभाग, भुज्यु, उषस्त, कहोल, उद्दालक तथा गार्गी आदि ने कई प्रश्न किये । पर याहवल्क्य ने सभी का सतोषजनक उत्तर दे दिया । अन्त में वाचकवी गार्गी ने कहा – ‘पूजनीय ब्रह्मणगण । अब मैं इनसे दो प्रश्न करती हूँ । यदि ये मेरे उन प्रश्नों का उत्तर दे देंगे तो समझ् लिजिये कि इन्हें कोई भी न जीत सकेगा ? ब्राह्मणों ने कहा – ‘गार्गी, पूछ !?
गार्गी ने याज्ञवल्कय से प्रश्न किया – ‘हे याज्ञवल्कय | जो ब्रह्माण्ड से ऊपर है, जो ब्रह्माण्ड मे नीचे है, जो इस स्वर्ग और पृथ्वी के बीच से स्थित है। तथा जो भूत, वर्तमान और भविष्यरूप है, वह सूत्रात्मा विश्व किसमें ओतप्रोत है ?
याज्ञवल्कय ने कहा – “गार्गि ! यह जगदूरूप व्यावर्त सूत्र अन्तर्यामीरूप आकाश मे ओतप्रोत है ।”
गार्गि ने कहा – “इस उत्तर के लिये तुम्हें प्रणाम।
अब इस दूसरे प्रश्न का उतर दो कि जगद्रूप सून्नात्मा जिस आकाश में ओतओत है , वह आकाश किसमें ओतप्रोत है ?
याज्ञवल्कय ने कहा – ‘वह अव्याकृत आकाश अविनाशी अक्षर ब्रह्मा में ही ओतप्रोत है । यह अक्षर ब्रह्म देश काल-वस्तु आदि के परिछेद से रहित सर्वब्यापी अपरिछित्र है | इसी की आज्ञा मे सूर्य और चन्द्रमा नियमित रूप से बर्तते हैं । जो इसे जाने बिना ही मर जाता है, वह दया का पात्र है, और जो इसे जानकर मरण को प्राप्त होता है, वह ब्रह्माविद हो जाता है।
महर्षि के इस व्यख्यान को सुनकर गार्गी सतुष्ट हो गयी और उसने ब्राह्मणों से कहा – “याहक्षत्रल्क्य नमस्कार के योग्य है | ब्रह्मासम्बन्धी विवाद में इन्हे कोई भी नहीं हरा सकता |? याज्ञवल्कय के ज्ञान तथा तेज को देखकर सारी सभा चकित रह गयी |