जीवन का वास्तविक वरदान
(लेखक–पं० श्रीजानकीनाथजी शर्मा)
पता नहीं क्यों, कथाएं सभी को बड़ी प्यारी लगती हैं। जो बहुत बड़े महानुभाव हैं, जिन्हें अपनी विद्या, बुद्धि, वैभव, शक्ति, प्रभुता का बड़ा गर्व हैः और जो कुछ भी सुनना, जानना या पढ़ना नहीं चाहते, वे भी कथाएं सुनने, पढ़ने के लिये उत्सुक देखे जाते हैं। चतुर लोग कहानियों के द्वारा ही बड़े-बड़े गर्वीले राजा महाराजाओं को उन्मार्ग से हटाकर झट सन्मार्गरूढ़ करते रहे हैं। इन कथाओं द्वारा मित्रसम्मत किंवा कान्तासम्मत उपदेश प्राप्त होता है, जो सुनने में बड़ा मधुर तथा आचरण में सुगम जान पड़ता है। इसलिये इनकी ओर सभी का आकर्षण होता है। अकबर आदि के विषय में प्रसिद्धि है कि वे रात को सोने के समय मनोरंजन के लिये खिड़की के बाहर से कुछ विशिष्ट लोगों की कथाएँ सुनते थे।
Real Gift of Life
भगवत्कथाओं की तो बात ही निराली है। बड़े बड़े साधु संत; सिद्ध योगीन्द्र मुनीन्द्र भी उन्हें सुनने को सदा तत्पर रहते हैं और उनके लिये समाधि सुख को भी उत्सर्ग करने को तत्पर रहते हैं।
‘सुनि गुन गान समाधि बिसारी। सादर सुनहिं परम अधिकारी॥’
‘जीवनमुक्त महामुनि जेऊ।हरि गुन सुनहिं निरंतर तेऊ॥’
और तो ओर, पूर्णतम पुरुषोत्तम अखिल-ब्रह्माण्डनायक, परात्पर ब्रह्म भी नरावतार धारणकर, भूमण्डल पर अवतीर्ण होकर बड़ी रुचि से कथा सुनकर अपनी लालसा पूरी करता है-
‘कहत कथा इतिहास पुरानी।रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी ॥’
विश्वामित्र जी पुरानी कथाएँ सुनाते हैं’। भगवान् राघवेन्द्र को यह रात इतनी अच्छी लगी कि आधी रात हो गयी और पता न चला। राधवेन्द्र को कथाएँ इतनी अच्छी लगती हैं कि जहाँ कहीं भी भोजन आदि से अवकाश मिला कि वे कथाएँ सुनना चाहते हैं। विश्वामित्र जी भी इतने भावग्राहक हैं कि वे राघवेन्द्र को प्रार्थना करने का अवसर नहीं देते। उनकी रुख देखकर ही ऋषियों, मुनियों एवं प्राचीन राजाओं की कथाएँ कहने लग जाते हैं
‘करि भोजनु मुनिबर बिग्याती। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥’
कहाँ तक कहा जाय, सुनी जानी हुई कथाएँ भी सुनने में भली ही लगती हैं। संतजन तो उनमें कुछ-न कुछ नयी विशेषता फिर भी प्रकट कर देते हैं। इसलिये सर्वज्ञ ब्रह्म भी उन्हें सर्वथा जानता हुआ भी बार-बार सुनने में आनन्द का अनुभव करता है –
‘वेद पुरान असिष्ट अखानहिं। सुनरहिं राम जद्यपि सब जानहिं॥’
‘तहीं पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रह्न पर दाया॥
भ्रगति हेतु बहु कथा पुराना।कहे बिप्र जद्मपि प्रभु जाना॥’
इन कथाओं की स्वाभाविक मोहकता एवं निसर्ग सुन्दरता का ही यह परिणाम है कि यह निर्दोष शुद्ध, बुद्ध, जीव संयोगवशात् दूषित कथाओं के भी सामने आ जाने पर उनसे अनिच्छा नहीं प्रकट कर पाता। यहाँ तक कि कल्पित, असत्य, असत् कथाओं के भी सुनने, पढ़ने, सोचने में रस लेने लगता है। यदि ऐसी बात न होती तो आज विविध भाषाओं में लिखे गये चरित्रनाशक उपन्यासों का इतना बड़ा विशाल भण्डार क्यों कर तैयार हो जाता। इतना ही नहीं, गन्दे अश्लील साहित्य, कहानियों की असंख्य पुस्तकें एवं केवल अनर्गल, तामसी कहानियों एवं धारावाहिक उपन्यासों के रूपमें चलने वाली पत्रिकाओं का विस्तार संसार में कैसे होता? कितने पुस्तकालयों में तो केवल ऐसे ही साहित्य हैं; क्योंकि उनके सदस्य तथा जनता उन्हें ही चाहती है। पर यह मनुष्य-मस्तिष्क की दुर्बलता का अनुचित लाभ उठाना है। कथाओं के सहारे कठिन-से-कठिन सिद्धान्त मस्तिष्क में, जीवन में सुगमता पूर्वक उतार दिये जाते हैं। गणित के सिद्धान्तों कों सुगमतापूर्वक समझाने के लिये भी कथाओं की कल्पना की जाती है। वेदान्त के दुर्गम सिद्धान्त; दुरूह दर्शनों के दुर्गम तत्त्व ओर सहज ही बुद्धिगम्य हो जाते हैं। बालक जो कहानियाँ सुनता है, उसे तो वह अपने जीवन में ही उतार लेता है और उसके वे संस्कार प्राय: यावजीवन तिरोहित नहीं होते।
‘यन्नवे भाजने लग्न: संस्कार: नान्यथा भवेत्।
कथाच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते॥
दूसरे लोगों पर भी इन कथा तत्त्वों का कम प्रभाव कदापि नहीं पड़ता। कथाओं को पढ़ते-सुनते उनमें रुचि पैदा होती है। धीरे-धीरे वह रुचि उनमें गुण बुद्धि रखने लगती है। फिर तो वह मार्ग ‘सिद्धान्त’-सा बनकर मस्तिष्क में आ जाता है। इस तरह वैसा ही नाट्य करना – बन जाना अभीष्ट हो जाता है, और यह ठीक ही है कि मनुष्य जैसा बनना चाहता है और जी-जान से जैसा होने का प्रयत्त करता है, वैसा ही बन जाता है।
यादृशैः: संनिविशते . यादृशांश्वोपसेवते।
यादृगिच्छेतच्य भवितुं_ तादृगू भवति पूरुष:॥
फिर बालक हो या युवा, जो भी असत् कथाओं को चाव से पढ़े-सुनेगा वह तदनुकूल स्वभावतया धर्म, सदाचार को तिलाझलि दे स्वच्छन्द तामस, अकाण्ड ताण्डव नग्र नृत्य करने में ही गौरव अनुभव करेगा। फिर ऐसी दशा में वह मनुष्य-जीवन के परम एवं चरम लाभ – जिसके लिये देवता भी तरसते हैं, ‘ भगवत्प्राप्ति’ से तो वश्चित रह ही जायगा। बल्कि वह दुराचारसार प्राणी अपने सभी पुण्यों का नाश कर आश्रयहीन तमोमय नरकों में चिरकाल के लिये चला जायगा’। ठीक इसके विपरीत उतने ही श्रम तथा लगन से भगवच्चरित्र अथवा संत-चरित्र का श्रवण करने वाले सौभाग्यशाली सज्जन भगवान् को किंवा भगवद्धाम को प्राप्त करते हैं। भगवद् यश श्रवण करने, पढ़ने आदि से तो सीधे भगवत्सम्बन्ध होता है,
संत-कथा सुनने से भी संतों-जैसा आचरण करने की इच्छा होती है, इस तरह प्राणी संत बनकर भगवान् को प्राप्त कर लेता है।’ साथ ही सत्-कथा में ‘ भगवत्सम्बन्ध’ ही तो मुख्य कथा-वस्तु होती है। साथ ही संतजन प्रभु को अपने से भी अधिक प्रिय होते हैं। या यों कहिये कि ‘भगवत्सार सर्वस्व मात्र’ होने से संत और भगवन्त में कोई अन्तर ही नहीं होता’। इसलिये सत्कथाओं का भी वैसा ही महत्त्व है। श्रीवल्लभाचार्य जी तो भागवत के
‘श्रुतस्य पुंसां सुचिरभ्रमस्य ‘
इस श्लोक की ‘सुबोधिनी’ टीका में लिखते हैं कि जैसे भगवच्चरित्र सुनना आवश्यक है, उसी प्रकार भगवदीयों का–भगवद्भक्तों का भी चरित्र सुनना आवश्यक है; क्योंकि उन-उन संतों ने किस प्रकार भगवच्चरणारविन्द को हृदय में स्थिर किया था, यह संत चरित्र सुनने से सुगमता पूर्वक ज्ञात हो जाता है। साथ ही सौशील्य, कारुण्य, वात्सल्यादि भगवदीय दिव्य गुण ही भक्तों में भी होते हैं, इसलिये भगवदगुण और भक्तगुण सुनने में कोई अन्तर या विरोध नहीं है-
‘भगवटीयानामपि चरित्र श्रोतव्यं निराभ्नयं चरित्र स्वाश्रयत्व॑ न सम्पादयति ततो न स्थिरं भवेत्।
“अतो भगवच्चरित्रस्थापि भगवदीयचरित्रश्रवणफलम्।
*’येन येन गुणेन भगवच्चरणारविन्दं तेषां हृदये तिष्ठति स गुण: -श्रवणस्य फलम्।
भगवदीया एव गुणा भक्तेषु स्थितास्स्तथा भवन्तीति न विरोध: |!
थोड़े शब्दों के हेर-फेर से श्रीधर स्वामी ने भी यही कहा है।* स्वयं भागवतकार भी कहते हैं कि ‘ परमतत्त्ववेत्ता निर्श्रान्त विद्वानों की दृष्टि में शास्त्रों के प्रगाढ़ अध्ययन का यही फल है कि जिनके हृदय में मुकुन्द के पादारविन्द हैं, उन भक्तों के गुणों का श्रवण किया जाय ।
अस्तु! सारांश यह है कि मनुष्य का कल्याण बड़ी सुगमतापूर्वक हो सकता है; क्योंकि कथाएँ सब को अच्छी लगती ही हैं और संसार में भगवच्चरित्र अथवा भागवतचरित्र का कोई अभाव है नहीं। बस, करना केवल इतना ही है कि इस रुचि को उनमें योग दे दिया जाय। यदि समीप के स्थान में वैसी पुस्तकें न हों तो संतों से, भक्तों से, घर के बड़े-बढ़े लोगों से कथाएँ सुनी जाए।