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Learn friendship From Maharathi Karna Life Changing Story in Hindi

(कर्ण की महत्ता)

पाण्डव बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास पूर्ण कर चुके थे। वे उपप्लव्य नगर में अब अपने पक्ष के वीरों को एकत्र कर रहे थे। भाइयों में युद्ध न हो, महासंहार रुक जाय, इसके लिये श्रीकृष्णचन्द्र पाण्डवों के दूत बनकर हस्तिनापुर दुर्योधन को समझाने गये; किंतु हठी दुर्योधन ने स्पष्ट कह दिया – युद्ध के बिना सूई की नोक-जितनी भूमि भी मैं पाण्डवों को नहीं दूँगा।
वासुदेव का संधि-प्रयास असफल हो गया। वे लौटने लगे। उनको पहुँचाने के लिये भीष्म, विदुर आदि जो लोग नगर से बाहर तक आये, उन्हें उन्होंने लौटा दिया; किंतु कर्ण को बुलाकर अपने रथ पर बैठा लिया। कर्ण का खाली रथ सारथि पीछे-पीछे ले आ रहा था।
अपने रथ पर बैठाकर, आदरपूर्वक श्रीकृष्णचन्द्र कर्ण से बोले –  वासुदेव ! तुम वीर हो, विचारशील हो, धर्मात्मा हो। देखो, मैं तुम्हें आज एक गुप्त बात बतलाता हूँ। तुम अधिरथ सूत के पुत्र नहीं हो, तुम कुन्ती के पुत्र हो। दूसरे पाण्डवों के समान तुम भी पाण्डव हो, पाण्डु पुत्र हो; क्योंकि भगवान्‌ सूर्य के द्वारा तुम पाण्डु की पत्नी कुन्ती से उनकी कन्यावस्था में उत्पन्न हुए थे।!
Story About freindship between Danveer karan and duryodhan
कर्ण सिर झुकाये चुप-चाप सुनते रहे। वासुदेव ने उनके कंधे पर हाथ रखा – तुम युधिष्ठिर के बड़े भाई हो। दुर्योधन अन्याय कर रहा है और तुम्हारे ही बल पर अकड़ रहा है। तुम उसका साथ छोड़ दो और मेरे साथ चलो। कल ही तुम्हारा राज्याभिषेक हो। युधिष्टिर तुम्हारे युवराज बनेंगे। पाण्डव तुम्हारे पीछे चलेंगे। मैं तुम्हें अभिवादन करूँगा। तुम्हारे सहित जब पाण्डव छ: भाई साथ खड़े होंगे, तब त्रिभुवन में उनके सम्मुख खड़े होने का साहस किसमें है?
अब कर्ण तनिक मुसकराये। वे बोले – वासुदेव ! मैं जानता हूँ कि देवी कुन्ती मेरी माता हैं। मैं सूर्य-पुत्र हूँ और धर्मत: पाण्डव हूँ। किंतु दुर्योधन ने सदा से मेरा विश्वास किया है। जब सब मुझे तिरस्कृत कर रहे थे, दुर्योधन ने मुझे अपनाया, मुझे सम्मानित किया। मुझ पर दुर्योधन के बहुत अधिक उपकार हैं। मेरे ही भरोसे दुर्योधन ने युद्ध का  आयोजन किया है। मैं ऐसे समय में किसी प्रकार उनके साथ विश्वासघात नहीं करूँगा। आप मुझे आज्ञा दें उनके पक्ष में युद्ध करने की। होगा वही जो आप चाहते हैं; किंतु क्षत्रिय वीर खाट पर पड़े-पड़े न मरें, युद्ध में वीर-गति प्राप्त करें – यही मेरी इच्छा है।’
“कर्ण! तुम मेरा इतना भव्य प्रस्ताव भी नहीं मानते तो तुम्हारी इच्छा। युद्ध तो होगा ही।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने रथ रुकवा दिया।
उस रथ से उतरने के पूर्व कर्ण बोले – वासुदेव ! मेरी एक प्रार्थना आप अवश्य स्वीकार करें। मैं कुन्तीपुत्र हूँ, यह बात आप गुप्त ही रखें; क्योंकि युधिष्ठिर धर्मात्मा हैं। उन्हें पता लग जायगा कि मैं उनका बड़ा भाई हूँ तो वे राज्य मुझे दे देंगे और मैं दुर्योधन को दे दूँगा। मैं दुर्योधन का कृतज्ञ हूँ, अत: युद्ध उन्हीं के पक्ष से करूँगा; किंतु चाहता मैं यही हूँ कि न्‍्याय की विजय हो। धर्मात्मा पाण्डव अपना राज्य प्राप्त करें। जहाँ आप हैं, विजय तो वहाँ होनी ही है, फिर भी आप मेरा यह अनुरोध स्वीकार करें।
महात्मा कर्ण का अनुरोध स्वीकृत हो गया। वे श्रीकृष्णचन्द्र के रथ से उतरकर अपने रथ पर जा बैठे और हस्तिनापुर लौट पड़े।
(२)   संधि कराने के प्रयत्र में असफल होकर श्रीकृष्णचन्ध लौट गये। अब युद्ध निश्चित हो गया। युद्ध की तिथि तक निश्चित हो गयी। इधर देवी कुन्ती अत्यन्त व्याकुल हो रही थीं। कर्ण उनका ही पुत्र और वही अपने और भाइयों से संग्राम करने को उद्यत! दुर्योधन कर्ण के ही बल पर तो कूद रहा है। अन्त में कुन्ती देवी ने कर्ण को समझाने का निश्चय किया। बे अकेली ही घर से निकलीं | स्नान करके कर्ण गंगा में खड़े सूर्यदेव की ओर मुख किये संध्या कर रहे थे। कुन्ती देवी को कुछ देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। संध्या समाप्त करके कर्ण ने मुख घुमाया।
कुन्ती को देखते ही दोनों हाथ जोड़कर वे बोले – देवि! अधिरथ का पुत्र कर्ण आपको प्रणाम करता है।’ कुन्ती के नेत्र भर आये। बड़े संकोच से वे बोलीं-‘बेटा! मेरे सामने तो तू अपने को सूतपुत्र मत कह। मैं यही कहने आयी हूँ कि तू इन लोक प्रकाशक भगवान्‌ सूर्य का पुत्र है और इस अभागिनी के गर्भ से उत्पन्न हुआ है। मैं तेरी माता हूँ। तू अपने भाइयों से ही युद्ध का हठ छोड़ दे, बेटा! मैं तुझसे यही माँगने आयी हूँ आज।!
कर्ण ने फिर दोनों हाथ जोड़े – माता! आपकी बात सत्य है। मुझे पता है कि मैं आपका पुत्र हूँ; किंतु मैं दुर्योधन के उपकारों से दबा हूँ। दुर्योधन उस समय मेरा मित्र बना, जब मुझे पूछने वाला कोई नहीं था। आपत्ति के समय मैं मित्र का साथ नहीं छोड़ सकता। युद्ध तो मैं दुर्योधन के ही पक्ष में करूँगा। कुन्ती देवी ने भरे कण्ठ से कहा–‘माँ होकर आज संकोच छोड़कर मैं तेरे पास आयी और तू मुझे निराश करके लौटा रहा है!!
कर्ण बोले–‘माता! आप मुझे क्षमा करें। मैं कर्तव्य से विवश हूँ। परंतु मैं आपको बचन देता हूँ कि अर्जुन कों छोड़कर दूसरे किसी पाण्डव पर मैं घातक वार नहीं करूँगा। दूसरे भाई युद्ध में मेरे सामने पड़ें भी मैं उन्हें छोड़ दूँगा। आपके पाँच पुत्र बने रहेंगे। अर्जुन मारे गये तो आपका पाँचवाँ पुत्र में और मैं मारा या तो अर्जुन हैं ही।’ “तुम अपना यह वचन स्मरण रखना! ! देवी कुन्ती आशीर्वाद देकर लौट गयीं।
पितामह भीष्म सदा कर्ण का तिरस्कार किया करते थे। युद्ध के आरम्भ में महारथी, अतिरथी बीरॉ की गणना करते समय सबके सामने ही उन्होंने कर्ण को अर्धरथी कहा था। चिढ़कर कर्ण ने प्रतिज्ञा कर ली थी कि जब तक पितामह युद्ध में कौरवपक्ष के सेनापति हैं, वह शस्त्र नहीं उठायेगा। दस दिनों के युद्ध में कर्ण तटस्थ दर्शक ही रहे। दसवें दिन पितामह अर्जुन के बाणों से विद्ध होकर रथ से गिर पड़े। उनके शरीर में लगे बाण ही उनकी शय्या बन गये थे। पितामहके गिरने पर युद्ध बंद हो गया। सब स्वजन उनके समीप आये। यह भीड़ जब समाप्त हो गयी, जब शर शय्या पर पड़े भीष्म अकेले रह गये, तब एकान्त देखकर कर्ण वहाँ आये। उन्होंने कहा – पितामह ! सदा आपसे धुष्टता करने वाला सूतपुत्र कर्ण आपके चरणों में प्रणाम करता है।’
भीष्म पितामह ने सनेहपूर्वक कर्ण को पास बुलाया और स्नेहपूर्ण गढ़द वाणी से बोले- बेटा कर्ण! मैं जानता था कि तुम महान्‌ शूर हो। तुम अद्भुत वीर एवं श्रेष्ठ महारथी हो। तुम ज्ञानी हो। परंतु तुम्हें हतोत्साह करने के लिये मैं सदा तुम्हारा तिरस्कार करता था। इसी उद्देश्य से मैंने तुम्हें अर्धरथी कहा था; क्योंकि दुर्योधन तुम्हारे ही बल पर युद्ध को उद्यत हुआ। यदि तुम युद्ध में उत्साह न दिखलाते तो दुर्योधन युद्ध का हठ छोड़ देता। यह महासंहार किसी प्रकार रुक जाय, यही मैं चाहता था। परंतु हुआ वही जो होने वाला था। तुम्हारे प्रति मेरे मन में कभी दुर्भाव नहीं हुआ है। मेरी बातों को तुम मन में मत रखना।
कर्ण मस्तक झुकाये सुनते रहे। पितामह ने कहा-“बेटा! मेरी बलि लग चुकी है। तुम चाहो तो यह संहार अब भी रुक सकता है। में तुम्हें एक भेद की बात बतलाता हूँ। तुम अधिरथ के पुत्र नहीं हो। तुम सूर्यकुमार हो और कुन्ती के पुत्र हो। तुम पाण्डवों में सबसे बड़े हो। दुरात्मा दुर्योधन का साथ छोड़कर तुम्हें अपने धर्मात्मा भाइयों का पालन करना चाहिये।
कर्ण अब बोले – पितामह! आप जो कह रहे हैं, उसे मैं पहले से जानता हूँ। किंतु दुर्योधन मेरा मित्र है। उसने सदा मुझसे सम्मान का व्यवहार किया है। अपने पर उपकार करने वाले मित्र के साथ मैं विश्वासघात कैसे कर सकता हूँ। उसका मुझपर ही भरोसा है, ऐसी दशा में मैं इस संकटकाल में उसका साथ कैसे छोड़ सकता हूँ। आप तो मुझे युद्ध करने की आज्ञा दें। कौरव पक्ष में युद्ध करते हुए मैं वीरों की भाँति देहत्याग करूँ, यही मेरी कामना है।
पितामह ने आशीर्वाद दिया – वत्स ! तुम्हारी कामना पूर्ण हो। तुम उत्साहपूर्वक दुर्योधन के पक्ष में युद्ध करो। अपने कर्तव्य का पालन करो।
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