उसने सच कहा
महर्षि घोर के पुत्र कण्व और प्रगाथ को गुरुकुल से लौटे कुछ ही दिन हुए थे। दोनों ऋषि कुमारों का एक दूसरे के प्रति हार्दिक प्रेम था। प्रगाथ अपने बड़े भाई कण्व को पिता के समान समझते थे, उनकी पत्नी प्रगाथ से स्रेह करती थी। उनकी उपस्थिति से आश्रम का वातावरण बड़ा निर्मल और पवित्र हो गया था। यज्ञ की धूमशिखा आकाश को चूम-चूमकर निरन्तर महती सात्विकता की विजयिनी पताका-सी लहराती रहती थी।
एक दिन आश्रम में विशेष शान्ति का साम्राज्य था। कण्व समिधा लेने के लिये वन के अन्तराल में गये हुए थे। उनकी साध्वी पत्नी यज्ञवेदी के ठीक सामने बैठी हुई थी। उससे थोड़ी दूर पर ऋषिकुमार प्रगाथ साम-गान कर रहे थे।
यह कौन है, इस नीच ने तुम्हारे अड्डू में विश्राम करने का साहस किस प्रकार किया ?” समिधा रखते ही कण्व के नेत्र लाल हो गये, उनका अमित रुद्ररूप देखकर ऋषिपत्नी सहम गयी।
‘देव!’ वह कुछ और कहने ही जा रही थी कि कण्व ने प्रगाथ की पीठ पर पद प्रहार किया। ऋषिकुमार की आँख खुल गयी। वह खड़ा हो गया। उसने कण्व ऋषि को प्रणाम किया।
आज से तुम्हारे लिये इस आश्रम का दरवाजा बंद है, प्रगाथ!’ कण्व ऋषि की वाणी क्रोध की भयंकर ज्वाला से प्रज्जलित थी, उनका रोम-रोम सिहर उठा था।
भैया! आप तो मेरे पिता के समान हैं और ये तो साक्षात् मेरी माता हैं।’ प्रगाथ ने ऋषिपत्नी के चरणों में श्रद्धा प्रकट कर कण्व का शङ्का-समाधान किया।
कण्व धीरे-धीरे स्वस्थ हो रहे थे, पर उनके सिर पर संशय का भूत अब भी नाच रहा था।
ऋषि कुमार प्रगाथ ने सच कहा है, देव! मैंने तो आश्रम में पैर रखते ही उनका सदा पुत्र के समान पालन किया है। बड़े भाई की पत्नी देवर को सदा पुत्र मानती है, इसको तो आप जानते ही हैं; पवित्र भारत देश का यही आदर्श है। ऋषिपत्नी ने कण्व का क्रोध शान्त किया।
भाई प्रगाथ! दोष मेरे नेत्रों का ही है, मैंने महान् पाप कर डाला; तुम्हारे ऊपर व्यर्थ शंका कर बैठा।’ ऋषि कण्व का शील समुत्थित हो उठा, उन्होंने प्रगाथ का आलिंग्न करके सनेह-दान दिया। प्रगाथ ने उनकी चरण-धूलि मस्तक पर चढ़ायी।