सहजता
सत्य के लिए साहस नहीं सहजता चाहिए।
जो सहजता से होता हो, वही ठीक है।
अपने साथ सहजता से रहो; ये स्वीकार करना बहुत ज़रूरी होता है कि, ‘मैं तो ऐसा ही हूँ।’ जब ये स्वीकार शुरू हो जाता है कि मेरी हालत ऐसी ही है तब फिर बदलाव आने लग जाता है। और बड़ी अजीब बात है कि —जो बदलाव लाने की कोशिश करता है वो पाता है कि सिर्फ उसे अटकाव मिल रहा है, जैसा है वहीं अटक गया और जो स्वीकार कर लेता है अपनी वस्तुस्थिति को उसके जीवन में बदलाव आने लग जाते हैं।”
सहजता में प्रेम है।
“जहाँ कहीं भी सहजता नहीं होती, जहाँ कहीं भी कुछ ऐसा होता है जो आपके स्वभावानुकूल नहीं होता, वही होता है जो मन पर दर्ज़ हो जाता है।”
“न कमज़ोरी न ताकत, बस सहज बहाव।”
“जो कुछ भी सहज होता है वो कभी स्मृति पर अंकित होता ही नहीं।”
“जो सहजता से चल नहीं सकता, वो सहजता से खड़ा भी कैसे हो जाएगा?”
“वो जो सहजता होती है उसमें मजबूरी का भाव नहीं रहता, उसमें आत्म बल होता है।”
“क्रांति है अपना साक्षात्कार, महाक्रांति अपना सहज स्वीकार|”
——————————————————
उपरोक्त सूक्तियाँ आचार्य प्रशांत के लेखों और वार्ताओं से उद्धृत हैं