“सब प्राणियों की पीड़ा मिट जाये”
जितने प्राणी जगत में, सभी रहें खुशहाल।
पर उपकारी हो गये, रत्न देव भूपाल॥
राजा रन्तिदेव एक धार्मिक और संतोषी जीव थे। उन्हें जो धन अकस्मात मिल जाता था, उसी से वे निर्वाह कर लेते थे और जो धन पास में होता था, उसे बॉंट दिया करते थे और जो नया मिल जाता था, उसी से काम चलाते थे। पास में कुछ भी रहने पर धेर्य को कभी नहीं छोड़ते थे।
एक बार वे कुटुम्ब सहित बहुत दु:खी हो गये थे। यहाँ तक कि एक बार अड़तालिस दिन व्यतीत हो गये, परन्तु पीने को जल न मिला। उनचांसवे दिन धृत, खीर, लस्सी और जल अकस्मात् ही प्रात: मिल गये। भोजन करने की तैयारी हो रही,थी कि एक ब्राह्मण अतिथि आ गये। राजा ने उन्हें आदरपूर्वक अपना भोग खिलाकर विदा करके शेष अन्न को खाने ही वाले थे कि एक शूद्र आ गया। उसमें से कुछ उसे दे दिया। इतने में एक दूसरा अतिथि एक कुत्ते को साथ लिए आ गया।
वह बोला-हे महाराज! मैं और मेरा कुत्ता भूखे हैं, कुछ अन्न प्रदान कीजिए। शेष बचे अन्न को आदरपूर्वक उन्हें देकर सबको प्रणाम किया। जब थोड़ा सा जल ही शेष रह गया था। राजा जल को पीने ही वाले थे कि एक चांडाल आ गया और बोला-मुझ नीच को जल प्रदान कीजिए। उसकी दीन वाणी सुनकर राजा दया से भरकर अमृत रूपी वाणी में बोले-
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग पुनर्भवम्।
कामये दुःख ताप्तानां प्राणिनामार्त्तिनाशनम्॥
अर्थ-मुझे न तो राज्य की और न मोक्ष की ही इच्छा है। मेरी तो यही इच्छा है कि सब प्राणियों की पीड़ा समाप्त हो जाये।इसी को मैं अपना दुःख छूटना समझता हूँ। इतना कहकर वह स्वयं प्यासे रह गये और चाण्डाल को जल दे दिया।
फल न चाहने वालों को फल देने वाले ईश्वर तथा ब्रह्मादि देवता कुत्ते आदि का माया रूप धरकर आये थे। उन्होंने फिर अपना रूप धारण कर राजा को दर्शन दिया। राजा ने उसको भक्ति पूर्वक प्रणाम किया परन्तु कुछ इच्छा नकी।
भाइयों! हमारे भारतवर्ष में एक नहीं बल्कि हजारों ऐसे राजा हुए हैं, जिन्होंने प्राणी मात्र में ईश्वर को देखते हुए सबकी तन, मन, धन से सेवा श्रुषा की है। परन्तु दूसरों का उपकार करना संसार में सबसे उत्तम धर्म माना गया है। राजा रन्तिदेव के उपरोक्त आदर्श को ग्रहण कर प्रत्येक प्राणी को दीन दुखियों की सेवा करनी चाहिए।