“’सन्तोषी ब्राह्मण”!
एक बार की बात है कि एक राजा ने अपने पिताश्री का श्राद्ध किया। जब मध्याद्न में ब्राह्मण भोजन करने आये तो राजा श्राद्ध के कारण स्वयं ही ब्राह्मणों के चरण धोने लगा। अचानक एक ब्राह्मण के मिट्टी में सने हुए पाँवों को देखकर राजा बोला–महाराज! आपके पाँव तो बड़े मैले हो रहे हैं। ब्राह्मण बोला–ब्राह्मणों के चरण तो ऐसे ही होते हैं ! राजा चुप रह गया। तत्पश्चात् जब सभी भोजन करने बैठे तो वह मैले पैरों वाला ब्राह्मण भी साथ में बैठ गया। सब के भोजन समाप्त , करने के पश्चात् राजा बोला कि जो ब्राह्मण एक लड्डू ( खायेगा उसे एक रुपया इनाम मिलेगा। काफी ब्राह्मणों ने | लड॒डू खाये। राजा बोला–जो अब एक लड्डू खायेगा तो ! ‘ उसे दो रुपये मिलेंगे। ( इसी प्रकार राजा ने लड्डू खाने के लिए बीस रुपये ;’ । तब बोल दिये, परन्तु गन्दे पाँव वाले ब्राह्मण ने कुछ भी नहीं | लिया। भोजन कर लेने के पश्चात् राजा ने उस ब्राह्मण से ‘ | रुपये न लेने और लड्डू न खाने का कारण पूछा। ब्राह्मण ने ) कहा–महाराज! ब्राह्मण धर्म तो सन््तोष रखना सिखाता है। / मैं पेट् नहीं हूँ। जो पेटू होते हैं वे ही भोजन और रुपये के ५ / लोभ में फँस जाते हैं। ब्राह्मण तो संतोषी जीव होता है। नीति (६ ‘ में लिखा है –
असन्तुष्टा द्विजा नष्टा ” ८