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लोभ का कुल

लोभ का कुल

एक सेठ बहुत स्वार्थी और लोभी था। इस कारण वह किसी भी शुभ कार्य में एक पाई भी खर्च नहीं करता था। घर के लोगों को भी वह आराम से खाने-पहनने नहीं देता था।उसके समान शायद ही कोई सूद खोर व्यक्ति इस संसार  में मिले।
एक दिन एक ठग ने आकर सेठजी से कुछ बर्तन माँगे। सेठजी ने उसे बर्तन दे दिये। काम समाप्त हो जाने पर धूर्त पाँच-सात बर्तन अधिक देने लगा। सेठजी बोले – ये | छोटे बर्तन तुम किसके ले आये? ये मेरे नहीं हैं। धूर्त बोला-, सेठजी! ये आपके बड़े बर्तनों के बच्चे हुए हैं। सेठ जी समझ तो गये कि इसका क्‍या तात्पर्य है, परन्तु मुफ्त में मिले बर्तन कौन छोड़ता है।
उन्होंने छोटे-बड़े सब बर्तन घर में रख लिये। कुछ दिन बाद वह धूर्त फिर आया और बोला-आज हमारे यहाँ बहुत बड़ी ज्योनार ( दावत ) है। इसके लिए आप हमें सोने चाँदी के बर्तन देने की कृपा करें। लोभ में पड़कर सेठ ने सोने चाँदी के बर्तन उसे दे दिये। अबकी बार वह धूर्त बहुत दिन व्यतीत होने पर भी बर्तनों को लौटाने नहीं आया।
कुछ दिन इन्तजार करने के बाद सेठजी स्वयं उस धूर्त के घर पर अपने बर्तन लेने गये।ठग बोला-आपके बर्तन तो मर गये। उन्हें मैंने जला दिया है। कल उनकी आरिष्टी भी हो गयी। इस काम में मुझे जो खर्च करना पड़ा है, उसमें आप भी कुछ हिस्सा बॉट लें, तो आपका बड़प्पन माना जायेगा।
सेठजी बोले – कहीं बर्तन भी मरते हैं? धूर्त ने उत्तर दिया – टूट जाने पर बर्तन को मरा हुआ ही कहा जायेगा और फिर यदि बर्तन बच्चे दे सकते हैं, तो वे मर क्‍यों नहीं सकते? ऐसे बेतुके तर्क  सुनकर सेठजी अपना माथा ठोकते हुए घर लौट आए। लाभ का कारण समझे बिना लाभ ग्रहण न करें । देखो न, लाभ लेने के लिए गये सेठजी को उस धूर्त ने किस प्रकार ठग लिया।
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