. भक्त का अठल विश्वास .
.. एक गांव में एक शोभा नामक पंडितजी रहा करते थे। वे ““यथा लाभ सम्तुष्ट ” प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। जब उनका बुढ़ापे का समय आ गया तो उन्होंने अपने हृदय में सोचा कि यह शरीर तो नाशवान है। मोह, माया में फंसकर व्यक्ति आवागमन के चक्र में ही फंसा रहता है। उसकी मुक्ति नहीं होती। मनुष्य योनि बहुत ही शुभ कर्म करने पर ही प्राप्त होती है। मनुष्य जीवन तभी सफल माना जाता है जब प्रभु का भजन किया जाये। वृद्धावस्था शरीर पर पदार्पण कर चुकी है। इसलिए न मालूम कब मृत्यु प्राणों का हरण करके ले जाये। इसलिए इस अवस्था में मोह माया से मन को हटाकर प्रभु का भजन करना चाहिए।
यह सोचकर वह पंडित मुखिया के पास जाकर बोला–मुखिया जी! में अब इस संसार से अपने मन को हटाकर प्रभु का भजन करना चाहता हूँ। आप मुझे भक्ति करने का कोई सरल उपाय बतायें। आप गाँव के माननीय व्यक्ति हैं, आपको सब बातों का ज्ञान है।
मुखिया विद्वान होने के साथ एक मसखरा व्यक्ति भी था। उसने कहा-भाई ! तुम्हारा विचार बड़ा उत्तम है। प्रत्येक मनुष्य को प्रभु की भक्ति अवश्य करनी चाहिए। तुम वन में जाकर एक स्थान पर बैठ जाओ और बिना कुछ ग्रहण किये ‘“हरिया गोबर परात में, शोभा गया बारात में ” इस मंत्र का उच्चारण जोर-जोर से करो। ह
बैचारे शोभा पंडितजी को इस बात का आभास तक नहीं हुआ कि मुखिया ने उसके साथ मजाक किया है। वह वन में जाकर एक वक्ष के नीचे आसन लगाकर बिना अन्नजल ग्रहण किये चित्त को एकाग्र करके ”हरिया गोबर परात में, शोभा गया बारात में ‘ ‘ नामक मंत्र का जोर-जोर से जप करने लगा। |
इस प्रकार जब शोभा पंडितठजी को तीन दिन व्यतीत हो गये तो भूख-प्यास के मारे प्राण पखेरू निकलने को तैयार हो गये। भगवान् विष्णु ने सोचा–यदि क्षण भर की भी देरी हो गई तो भक्त मेरे दर्शन करने से पूर्व ही
स्वर्गलोक में पहुँच जायेगा। इसलिए इसे अभी जाकर दर्शन
देने चाहिए।
यह सोचकर वे लक्ष्मी को साथ लेकर गरुड़ पर आरूढ़ होकर भक्त के पास पहुँच गये। उस समय वह आँखें मूँदे, ध्यान मग्न होकर ‘ ‘हरिया गोबर परात में, शोभा गया बारात में!” मंत्र क्रा जाप कर रहा था। उसको इस प्रकार यह मंत्र जप करते हुए सुनकर लक्ष्मीजी ने हँस कर कहा-प्रभु! कया आपका परम भक्त यही है, जिसके लिए आपको यहाँ तक आना पढ़ा! भगवती लक्ष्मी की बात सुनकर प्रभु विष्णु बोले-हाँ! यही संसार के सर्वश्रेष्ठ भक्तों में से एक है जिसके लिए मुझे यदि आवश्यकता पड़े तो कई चक्कर लगा सकता हूँ। लक्ष्मीजी बोलीं–प्रभु! आपकी बात सुनकर मुझे अति आश्चर्य हुआ, क्योंकि जो आपका श्रुति स्मृति पुराण और शास्त्रोक्त विधि से नित्य अर्चन पूजन और ध्यान लगाते हैं और जो बड़े-बड़े उत्सवों में खड़े होकर झांझ-मंजीरे करताल बजाते हुए आपका कीर्तन करते रहते हैं, उनको तो आयु पर्यन्त भी आपके दर्शन नसीब नहीं होते, परन्तु इस ब्राह्मण को “’हरिया गोबर परात में, शोभा गया बारात में” इस बेतुकी बात के रटने मात्र से केवल तीन ही दिन में दर्शन देने हेतु आ गये।
…. लक्ष्मी जी की बात सुनकर भगवान विष्णु ने कहा-हे प्रिये! भक्त मेरे हैं और मैं भक्तों का हूँ। भक्तों के लिए मुझे , तरह-तरह की लीलाएँ करनी पड़ती हैं। अनेकों अवतार ‘ ग्रहण करने पड़ते हैं, परन्तु वह वास्तव में सच्चा भक्त होना _ चाहिए। ‘
हे प्रिये! मेरी सच्ची भक्ति के बिना वेद मंत्रों द्वारा नित्य भजन करना या झांझ मजीरे बजाकर दिन रात जोर-जोर से मेरे नामों का कीर्तन करना, ये सब व्यर्थ है। वास्तव में मेरा सच्चा भक्त वह है जो क्रोध, मद, लोभ, अहंकार और असत्य भाषण का सर्वथा त्याग करके सत्य, शांति और संतोष को धारण करके तनन््मय होकर अपने को मुझे अर्पण कर दे। जिसके लिए मैं यहाँ आया हूँ, यह मेरा सर्वोत्तम भक्त है। इसने काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, अहंकार और झूँठ को सर्वथा त्याग कर सच्चे हृदय से अपना शरीर मुझे अर्पण कर दिया है। क्या तुम नहीं देख रही कि इसने मन, वचन, कर्म
से अपना शरीर मुझे अर्पण कर दिया है। तब क्या मैं अपने भक्तों के लिए सब कुछ नहीं कर सकता?
हे प्रिये! आपने जो इसके जाप के शुद्ध अर्थ को जाने बिना खिलली उड़ाई है, वह उचित नहीं है। यह मेरे कृष्णावतार की लीला को लक्ष्य करके मेरा जप कर रहा है। अर्थात् जब तुमने रुक्मणी का रूप धारण किया हुआ था और में कृष्ण का रूप धारण किए हुए था, तब तुमने शिशु पाल से विवाह होने के समय मेरे पास समाचार भेजा था कि ” हरियाहे हरिया, गो इंद्रियाँ वर श्रेष्ठ जीती हुई परात पात्र शरीर में है” अर्थात् हे कृष्ण शीघ्र आओ क्योंकि केवल आपके भरोसे ही मेरे इंद्रिया मेरे शरीर में जीती जागती हैं। तुम्हारे उचित समय पर न पहुँचने से मेरी इंद्रियाँ निर्जीव हो जायेंगी। मैंमरजाऊँगी। .:
हे प्रिये! जब तुमने यह चिट्ठी लिखी तो मेरे पहुँचने से ही तुम्हारे विवाह की शोभा बढ़ गई अर्थात् मैं शोभा स्वरूप तुम्हारे यहाँ बारात लेकर गया और तुम्हें लक्ष्मी स्वरूप रुक्मिणी को दुष्ट शिशुपाल के चंगुल से मुक्त करा कर ले आया। जिसने रुक्मिणी की लाज रखकर उसे शिशुपाल रूपी दुष्ठ के पंजे से मुक्त कराया, वह मुझे भवसागर से पार करने की कृपा करें।
फिर वे भक्त शोभा पंडितजी से बोले–कि हम तुम्हारे ऊपर प्रसन्न हैं। तुम्हें जो मॉगना हो माँग लो। भक्त ने उत्तर दिया-प्रभु! मुझे तो केवल आपके चरणों की भक्ति चाहिए। प्रभु तथास्तु कहकर अर्न्तध्यान हो गये। इसे कहते हैं कि अटल विश्वास। प्रभु की ये बातें सुनकर लक्ष्मी जी का सन्देह जाता रहा और उनके भक्त की प्रशंसा करने लगीं। तत्पश्चात् प्रभु विष्णु ने चतुर्भुजी रूप में लक्ष्मीजी के साथ अपने भक्त को दर्शन दिये।