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नवीन समाज की स्थापना – establishment of new society

नवीन समाज की स्थापना 

एक भर्ता को छोड़कर, दूसरे से सम्भोग ।
व्याभिचारी व्याभिचार को कहते वैदिक नियोग॥

पुराने समय की बात है कि एक अर्द्धनास्तिक व्यक्ति ने अपनी प्रतिष्ठा हेतु एक नवीन समाज की स्थापना की प्रतिष्ठा की और स्वयं उसका स्वामी बना। काफी समय तक अपने थोथे पन्‍थ का इधर-उधर प्रचार करने के पश्चात्‌ एक थोथे पोथे की रचना की ।उसने उसके चौथे अध्याय में लिखा कि विवाहिता स्त्री जो विवाहित पति धर्म के अर्थ में विदेश गया हो तो आठ वर्ष विद्या और कीर्ति हेतु, छः वर्ष धन इत्यादि कमाने के लिए, तीन वर्ष तक प्रतीक्षा करने के  पश्चात्‌ नियोग के द्वारा सन्‍्तान उत्पत्ति कर ले और जब पति आये तब नियुक्त पति छूट जाये और वह संतान विवाहित पुरुष की ही मानी जायेगी। 
एक शहर में एक ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ रहता था। ब्राह्मण की आयु 30 वर्ष और उसकी पत्नी की आयु 20 वर्ष थी। ब्राह्मण देवता एक सरकारी कार्यालय में काम करते थे। अभी तक उनके कोई संतान उत्पन्न नहीं हुई थी। 
उसी शहर में ऊपर वर्णित किये गये समाज की भी स्थापना हो चुकी थी। प्रत्येक रविवार को इस समाज के सदस्य एक मकान में एकत्र होकर कुछ क्रिया-कलाप किया करते थे। वह ब्राह्मण भी इस समाज में आने लगा । वह चार आने प्रतिमाह का चंदा भी देने लगा। 
कुछ समय के बाद उस ब्राह्मण ने उस समाज लिखित थोथा पोथा भी खरीद कर अपने घर ले आया। वह समय मिलने पर उस पोथे का अध्ययन करने लगा। कुछ समय बाद उस ब्राह्मण धर्मपाल की पत्नी भी उस पार्टी में आने लगी। 
संयोगवश उस ब्राह्मण धर्मपाल का स्थानान्तर रंगून के लिए हो गयी। जब वह रंगून के लिए जाने लगा तो वह अपनी पत्नी से बोला कि इतनी दूर एक दम तुम्हें साथ ले चलना ठीक नहीं है। तुम यहीं पर रहो । घर खर्च के लिए 20 रुपये प्रति माह भेज दिया करूँंगा। 
धर्मपाल तो रंगून चला गया। उसके पीछे उस नवीन समाज के सदस्य उसकी पत्नी के पास आने जाने लगे। एक दिन समाज के मंत्री जी ने धर्मपाल की पत्नी  से धर्म चर्चा करते हुए कहा कि तुम्हारे कोई सन्‍्तान नहीं है। मैं तुम्हें सन्‍्तान प्राप्ति के लिए एक सुगम उपाय बताता हूँ। उससे तुम्हें संतान प्राप्त हो सकती है। 
धर्मपाल की पत्नी की सहमति मिल जाने पर मंत्रीजी ने अपने थेलें में से पंचम वेद थोथा पोथा निकाला और उसका चौथा अध्याय खोलकर उसे दिखाया और कहा देखो ये वेद की आज्ञा है। इसमें स्पष्ट लिखा है कि जब पति धन कमाने की इच्छा से विदेश चला जाये तो उसकी पत्नी पर-पुरुष से नियोग कर सन्‍्तान उत्पन्न कर सकती है। धर्मपाल को पत्नी मंत्री के मुख से ऐसे शब्द सुनकर तथा पोथे में लिखे नियोग कर्म को पढ़कर थरथर कॉंपने लगी। 
मंत्री महोदय बोले–इसमें घबराने की कोई बात नहीं है। धर्मपाल की पत्ती बोली–महाशय! आप यह क्या कह रहे हैं।एक पतिवता स्त्री के लिए यह कैसे सम्भव हो सकता है कि वह परपुरुष के साथ सम्भोग करे। मंत्रीजी ने उसे समझाया कि यह मत मेरा या पुस्तक के लेखक का नहीं है। यह तो वेद भगवान की पवित्र आज्ञा है। तुम्हारा पति भी हमारी संस्था का एक सदस्य है। यदि वह आज यहाँ उपस्थित होता तो वह भी इस वेद पोषक सिद्धान्त के सामने नत मस्तक हो जाता। इसलिए तुम नि:संकोच नियोग के द्वारा अपने पति को संतान प्रदान करो । वह बोली -अच्छा मंत्रीजी मुझे तुम्हारी बात स्वीकार है। मंत्रीजी बोले–ठीक है, है अभी प्रबन्ध किये देता हूँ। 
इतना कहकर मंत्रीजी ने अपने एक मित्र को धर्मपाल की पत्नी के पास भेज दिया। वह उसके साथ रोज नियोग करने लगा। उसके नियोग विधि से तीन बच्चे उत्पन्न हुए और चौथा गर्भ में था। बारह वर्ष पश्चात्‌ धर्मपाल रंगृन मे वापिस आ गया और दरवाजे पर खड़े होकर अपनी पत्नी को पुकारने लगा। 
अपने पति की आवाज पहचानकर उसने दरवाजा खोला। अपने पति को देखकर वह बड़ी प्रसन्न हुई। पति ने अपनी पत्नी के पास बालक को देखा तो वह बोला-“यह कनकऊआ कौ का “अर्थात्‌ यह लड़का किसका है? पत्नी ने उत्तर दिया-“ओ३म्‌ दुहाई तै का”
अर्थ- मुझे ओ३म्‌ की कसम है। मैं सत्य कहती हूँ कि ये तुम्हारा लड़का है। 
धर्मपाल ब्राह्मण ने देखा कि मैं तो 12 वर्ष बाद आज यहाँ आया हूँ और यह लड़का आठ नौ वर्ष का लगता है। यह क्या मामला है। धर्मपाल ने अपने माथे पर हाथ मारते हुए कहा-धन्य हमारे कर्मा ।’ 
हमारे कर्म को धन्य है। मैं रंगून में ही रहा और यहाँ पुत्र पैदा हो गया। यह सुनकर उसकी पत्नी बोली -” दो खेलत धरमा”। 
यह एक ही बेटा नहीं है। दो बेटे और घर में खेल रहे हैं। यह सुनकर ब्राह्मण धर्मपाल बोला -” धन्य हमारे भागा।’ 
पत्नी उसकी बात सुनकर बोली – ” मैं फागुन की ग्या मा।” मैं फाल्गुन मास में फिर से गर्भवती हो गई हूँ। अपनी पत्नी की यह दशा देखकर और उस संस्था के पोथे को पढ़कर धर्मपाल पश्चाताप करने लगा और हमेशा के लिए उसने उस संस्था को तिलांजलि दे दी। 
भाइयों! इस दृष्टान्त का भावार्थ यह है कि प्रायः आजकल कुछ मनुष्य अपनी कामवासना को शान्त करने के लिए वेद आदि ग्रन्थों की आड़ में भारतवर्ष में व्याभिचार को उन्नति के शिखर पर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। यद्यपि ऋषि मनु ने अपनी मनुस्मृति में साफ वर्णन किया है कि जब पति परदेश धन कमाने की इच्छा से जाये और तीन वर्ष तक लौटकर न आये और उसकी पत्नी काम वासना के बिना न रह सके तब वह जहाँ उसका पति हो, उसके पास चली जाये। अब आप सब सोचें कि मनु की कितनी अच्छी और कितनी सच्ची आज्ञा है। प्रत्येक भारतवर्ष के नर-नारियों  को मनु के इस महान्‌ आदर्श पर चल कर अपने गुहस्थ धर्म  की रक्षा करनी चाहिए। 
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